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________________ 396 जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय एवं अन्तराय ये चार घाती कर्म हैं जो केवलज्ञान में बाधक हैं । इन आठ कर्मों में से सर्वप्रथम मोहनीय कर्म का क्षय किया जाता है। प्रशमरतिप्रकरण में मोह क्षय करने की प्रक्रिया का सुन्दर निरूपण हुआ है। इसके लिए जीव सर्वप्रथम अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया एवं लोभ का क्षय करता है। तदनन्तर मिथ्यात्व मोहनीय एवं सम्यक्त्व-मिथ्यात्व मोह का क्षय कर सम्यक्त्व मोहनीय को नष्ट करता है। इस प्रकार मोहकर्म की सात प्रकृतियों का क्षय करने के पश्चात् यदि मोहोन्मूलन की प्रक्रिया अनवरत चलती रही तो जीव आठ कषायों (प्रत्याख्यान चतुष्क और अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क) का क्षय करता है । क्रमशः नपुंसकवेद, स्त्रीवेद हास्यादिवेद षट्क (हास्य, रति, अरति, भय, शोक और जुगुप्सा) का क्षय करके पुरुषवेद का क्षय करता है । फिर संज्वलन क्रोध, मान, माया एवं लोभ का भी क्षय कर जीव वीतरागता को प्राप्त कर लेता है (कारिका 260-262)। इस प्रकार मोहनीय कर्म की 28 प्रकृतियों का क्षय होने पर पूर्ण वीतरागता प्राप्त होती है । पूर्ण वीतरागता के साथ ही ज्ञानावरण, दर्शनावरण एवं अन्तराय नामक घाती कर्म को क्षय कर साधक केवलज्ञान प्राप्त कर लेता है (कारिका 268-269)। ___ इस प्रकार मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय नामक चार घाती कर्मों को क्षय कर लेने वाला केवलज्ञानी शेष चार अघाती कर्मों (वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र) को अनुभव करता हुआ एक मुहूर्त तक अथवा कुछ कम एक पूर्वकोटि काल तक विचरण करता है (कारिका 271) । अन्तिम भव की आयु अनपवर्तित होने के कारण अभेद्य होती है। वेदनीय, नाम और गोत्र कर्म भी उसके समान अभेद्य होते हैं। किन्तु जिस केवली के आयुकर्म की अपेक्षा वेदनीय, नाम और गोत्र कर्म की स्थिति अधिक होती है तो वह उसे समुद्घात करके आयुकर्म के समान कर लेता है (कारिका 272-273)। समुद्घात करने की एक निश्चित विधि होती है जिसमें आत्म-प्रदेशों को लोकाकाश में फैलाकर कर्म स्थिति को समान कर दिया जाता है। इसके अन्तर्गत आत्मप्रदेशों को क्रमशः दण्डाकार, कपाटाकार, मथन्याकार और लोकव्यापी किया जाता है। यह प्रत्येक कर्म एक-एक समय में होता है (कारिका 274)। इसी प्रकार विपरीत क्रम से आत्म-प्रदेशों का एक-एक
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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