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________________ उमास्वातिकृत प्रशमरतिप्रकरण एवं उसकी तत्त्वार्थसूत्र से तुलना 395 उठाया गया कि भोजन, आश्रय, वस्त्र, पात्र आदि ग्रहण करने वाले साधु को अपरिग्रही कैसे कहा जा सकता है? इसका समाधान करते हुए उन्होंने कहा कि आहार, शय्या, वस्त्रैषणा, पात्रैषणा तथा जो कल्प्य (ग्रहण योग्य) एवं अकल्प्य (ग्रहण न करने योग्य) का विधान है वह सद्धर्म और देहरक्षा के निमित्त से है पिण्डःशय्यावस्त्रैषणादि पात्रैषणादि यच्चान्यत् । कल्प्याकल्प्यं सद्धर्मदेहरक्षानिमित्तोक्तम् ।। - प्रशमरति, कारिका, 138 उमास्वाति का मन्तव्य है कि धर्म के उपकरणों को धारण करने वाला साधु भी पङ्क में उत्पन्न कमल की भाँति निर्लेप रह सकता है (कारिका, 140) । साधु के लिए क्या कल्प्य है और क्या अकल्प्य, इसका निरूपण करते हुए उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि जो ज्ञान, शील और तप का उपग्राहक और दोषों का निग्राहक है वह निश्चय से कल्प्य है तथा शेष सब अकल्प्य है । (कारिका 141) इसी तथ्य को उन्होंने प्रकारान्तर से कहा कि जो वस्तु कल्प्य होने पर भी सम्यक्त्व, ज्ञान और शील की उपघातक होती है तथा जिससे जिन प्रवचन की निन्दा होती है वह कल्प्य वस्तु भी अकल्प्य ही है (कारिका 144)। उमास्वाति प्रतिपादित करते हैं कि देश, काल, क्षेत्र, पुरुष अवस्था, उपघात और शुद्ध परिणामों का विचार करके ही कोई वस्तु कल्प्य होती है, एकान्ततः कोई वस्तु कल्प्य नहीं होती (कारिका 146) । इस प्रसङ्ग में वे निर्ग्रन्थ का स्वरूप प्रतिपादित करते हुए कहते हैं कि ज्ञानावरण आदि अष्टविध कर्म, मिथ्यात्व, अविरति एवं अशुभ योग से सब ग्रन्थ हैं तथा इन्हें जीतने के लिए जो निष्कपटरूपेण यत्नशील रहता है वह निर्ग्रन्थ है ग्रन्थः कर्माष्टविधं मिथ्यात्वाविरतिदुष्टयोगाश्च । तज्जयहेतोरशठंसंयतते यः स निर्ग्रन्थः ।। -प्रशमरति, कारिका 142 इस प्रकार उमास्वाति वस्त्र, पात्र आदि को साधना में बाधक नहीं मानकर उन्हें अपेक्षा से कल्प्य स्वीकार करते हैं। प्रशमरतिप्रकरण के कर्ता उमास्वाति की यह मान्यता उन्हें श्वेताम्बर अथवा यापनीय सिद्ध करती है । तत्त्वार्थसूत्र में उमास्वाति ने इस प्रकार के किसी मन्तव्य को स्थान नही दिया है। मुक्ति की प्रक्रिया- मोक्ष-प्राप्ति में बाधक आठ कर्म हैं- ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र और अन्तराय । इनमें से
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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