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________________ 390 जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन नहीं होनी चाहिये । आवश्यकता इस बात की है कि प्रतिक्रमण करते समय मन, वाणी और काया तीनों का योग तथा आत्मभावों का उपयोग प्रतिक्रमण में रहे। यदि ऐसा हुआ तो प्रतिक्रमण सम्बन्धी ये विवाद बौने नजर आयेंगे और प्रतिक्रमण की साधना का डंका जगत् में चहुँ ओर स्वतः निनादित होता रहेगा । प्रश्न यह है कि जिसने व्रत अंगीकार नहीं किए हैं, क्या ऐसे गृहस्थ स्त्री-पुरुष या बालक-बालिका को भी प्रतिक्रमण करना चाहिए? इस सम्बन्ध में कुछ बातें ध्यातव्य हैं- 1. एक तो सांस्कृतिक ऐक्य की दृष्टि से एवं उस प्रकार के संस्कार प्राप्त करने या रुचि उत्पन्न करने की दृष्टि से उन्हें भी प्रतिक्रमण करना चाहिए। 2. व्रत अंगीकार न किए हुए होने पर भी प्रतिक्रमण आत्मशुद्धि में सहायक होता है। उसके पाठों का श्रद्धापूर्वक श्रवण करने से जीवन को हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार आदि से रहित बनाने की प्रेरणा प्राप्त होती है। कदाचित् व्रत अंगीकार करने की भी भावना बन सकती है। 3. यह ज्ञात होता है कि जीवन में हम जो दोष करते हैं, उनका निरीक्षण कर नियमित रूप से उनका निराकरण कर शुद्ध बनने हेतु प्रयत्नशील होना चाहिए। 4. दोषों की शुद्धि सम्भव है, यह विश्वास जागता है जो आध्यात्मिक उन्नति का महत्त्वपूर्ण आधार है। मेरे से आज क्या भूल हुई है, उसे मैं आगे से कैसे दूर कर सकता हूँ, इसका संकल्प जागता है, जो प्रतिक्रमण का मूल सन्देश है। बुराइयों एवं दोषों से बचने के लिए प्रतिक्रमण एक कारगर औषधि है। सन्दर्भ: - 1. पडिक्कमणं देवसियं रादियं इरियापथं च बोधव्वं । पक्खिय चादुम्मासिय संवच्छरमुत्तमट्ठे च ।। मूलाचार, 615 2. दव्वे खेत्ते काले भावे य कयावराहसोहणयं । णिंदणगरहणजुत्तो मणवयकायेण पडिक्कमणं । । - मूलाचार, 1.26
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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