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________________ प्रकीर्णक-साहित्य में समाधिमरण की अवधारणा 369 जब संथारे का चिन्तन करते हैं तो वे आसन, शय्या आदि को भी छोड़ देते हैं। जो गारव से मत्त होकर तथा गुरु के समक्ष अपनी आलोचना न करके संथारा ग्रहण करता है उसका संथारा अविशुद्ध होता है। संथारा शुद्ध किसका होता है, उसका इस प्रकीर्णक में विस्तृत निरूपण है। जो गुरु के पास आलोचना करके, सम्यग्दर्शन पूर्वक आचरण में निरत रहकर, राग-द्वेष को छोड़ते हुए तीन गुप्तियों से गुप्त एवं तीन शल्यों से रहित होकर, तीन गारवों एवं तीन दण्डों को त्यागकर, चतुर्विध कषाय एवं चार विकथाओं से रहित होकर, पाँच महाव्रतों एवं पाँच समितियों का पालन करता हुआ संथारा ग्रहण करता है, उसका संथारा शुद्ध होता है। यही नहीं शुद्ध संथारे पर आरूढ होने वाला साधक षड्जीवकाय की हिंसा से विरत होता है, सात भय स्थानों व आठ मदों से रहित होकर वह नव प्रकार की ब्रह्मचर्यगुप्ति से युक्त होता है एवं दस धर्मों का पालन करता है। संथारा ग्रहण करने के प्रथम दिन ही इतना लाभ होता है कि उसका मूल्य आंकना कठिन है। तृण के संस्तरण पर स्थित एवं राग तथा मोह से रहित मुनिवर को मुक्ति का वह सुख मिलता है जो चक्रवर्ती को भी नहीं मिल सकता। संथारे पर कब आरूढ होना चाहिए, इसके लिए कहा है कि वर्षा ऋतु में विविध प्रकार के तप करके हेमंत ऋतु में सथांरा ग्रहण करना चाहिए। 5.क्षमायाचना ___ समाधिमरण का यह भी एक महत्त्वपूर्ण सोपान है। साधु हो तो वह गुरु, गण एवं संघ के साधुओं से क्षमायाचना कर समस्त जीवों से क्षमायाचना करे। श्रावक हो तो वह भी अपने निकटतम जीवों से क्षमायाचना करने के पश्चात् सब जीवों से क्षमायाचना करे। आचार्य, उपाध्याय, शिष्य, साधर्मिक, कुल, गण आदि सबसे क्षमायाचना करने का विधान है आयरिए उवज्झाए सीसे साहम्मिए कुल गणे य। जे मे केइ कसाया सव्वे तिविहेणं खामेमि।।" वह दूसरों से क्षमायाचना ही नहीं करता, अपितु दूसरों को क्षमादान भी करता है। वह सबसे वैर-विरोध त्यागकर मित्रता का भाव रखता है, क्योंकि वह सबसे क्षमा याचना कर अपने हृदय को निर्मल बना लेता है
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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