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________________ 368 जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन चार संज्ञाओं, तैंतीस प्रकार की आशातनाओं तथा राग एवं द्वेष की गर्दा का भी उल्लेख मिलता है। आलोचना गुरु के समक्ष भी की जाती है। गुरु के समक्ष समाधिमरण का इच्छुक साधक मायामृषावाद को छोड़कर उसी प्रकार सरलता पूर्वक कार्य एवं अकार्य को प्रकट कर देता है जिस प्रकार कि एक बालक कार्य एवं अकार्य का विचार किए बिना सरलतापूर्वक बात कह देता है। 3.व्रताधान दोषों के त्याग के साथ महाव्रतों का पुनः आधान किया जाता है। श्रावक अणुव्रतों, गुणव्रतों एवं शिक्षाव्रतों को ग्रहण करता है।" सम्यक्त्व सामायिक, श्रुत सामायिक तथा सर्वविरति रूप सामायिक- इन त्रिविध सामायिक को बिना आगार के वह स्वीकार करता है। व्रतों का यह ग्रहण गुरु की साक्षी में भी किया जाता है। 4. संस्तारक प्रकीर्णकों में संस्तरण को अधिक महत्त्व नहीं मिला है। भगवती आराधना में चार प्रकार के संस्तरणों का उल्लेख है - पुढविसिलामओवाफलमओतणमओयसंथारो। होदिसमाधिणिमित्तंउत्तरसिर अहवपुव्वसिरो॥ अर्थात् समाधिमरण में चार प्रकार के संस्तरण निमित्त बनते हैं - पृथ्वी, शिलामय, फलमय और तृणमया साधक अपना सिर पूर्व या उत्तर दिशा में करके संथारा ग्रहण करता है। संस्तरण का अर्थ है बिछौना, लेटने-बैठने का स्थान या संसारसागर से तैरने की शय्या । प्रकीर्णकों की दृष्टि में बाह्य संस्तरण का कोई महत्त्व नहीं है, वस्तुतः आत्मा ही प्रमुख संस्तरण है, यथा नविकारणंतणमओसंथारोनविफासुआभूमी। अप्पा खलु संथारो हवइ, विसुद्धे चरित्तम्मि।। अर्थात् विशुद्ध चारित्र में न तो तिनकों का बना संथारा या संस्तरण निमित्त है और न प्रासुक भूमि इसमें निमित्त है, अपितु आत्मा ही निश्चय में संस्तरण है। __संस्तारक प्रकीर्णक में संथारे के सन्दर्भ में अनेक महत्त्वपूर्ण कथन मिलते हैं। वहाँ कहा गया है कि देवलोक के देवता विविध प्रकार के भोगों को भोगते हुए भी
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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