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________________ प्रकीर्णक-साहित्य में समाधिमरण की अवधारणा 361 करने के सम्बन्ध में उल्लेख है। (ख)अविचार भक्तपरिज्ञामरण यह मरण साधु एवं गृहस्थ दोनों के लिए है। आचार्य वीरभद्र ने इसके 3 भेद किए हैं - 1.निरुद्ध 2. निरुद्धतर और 3. परमनिरुद्ध। जंघाबल के क्षीण हो जाने पर अथवा रोगादि के कारण कृश शरीर वाले साधु का बिना शरीर संलेखना किए जो समाधिमरण होता है, उसे निरुद्ध अविचार भक्तपरिज्ञामरण कहते हैं। वह मरण यदि लोगों को ज्ञात हो जाय तो उसे प्रकाश और ज्ञात न होने पर अप्रकाश कहा जाता है। व्याल (सर्प), अग्नि, व्याघ्र आदि के कारण अथवा शूल, मूर्छा एवं दस्त आदि के कारण अपनी आयु को उपस्थित समझकर समाधिमरण की जो क्रिया करता है वह निरुद्धतर कहलाती है। जब भिक्षु की वाणी भी वातादि के कारण रुक जाय तो वह मृत्यु को उपस्थित समझकर परमनिरुद्धमरण मरता है। ___ भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक में अविचारमरण का विस्तृत विवेचन है, किन्तु वहाँ निरुद्ध, निरुद्धतर एवं परमनिरुद्ध भेद नहीं किए गए हैं। भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक के रचयिता आचार्य वीरभद्र के अनुसार साधु एवं गृहस्थ दोनों के द्वारा इस मरण को ग्रहण किया जाता है। जब व्याधि, जरा और मरण के मगरमच्छों की निरन्तर उत्पत्ति से युक्त संसारसमुद्र दुःखद प्रतीत हो तथा मृत्यु नजदीक प्रतीत हो तो शिष्य गुरु के चरणों में जाकर कहे कि मैं संसार समुद्र को तैरना चाहता हूँ, आप मुझे भक्तपरिज्ञा में आरूढ़ कीजिए। वह गुरु भी शिष्य को आलोचना और क्षमापना के साथ भक्तपरिज्ञा मे आरूढ़ होने के लिए कहता है। शिष्य फिर वैसा ही करके तीन शल्यों से भी रहित होता है। गुरु उस शिष्य को महाव्रतों में आरूढ़ करता है। यदि शिष्य देशविरत अर्थात श्रावक हो तो गुरु उसे अणुव्रतों में आरूढ़ करता है। वह शिष्य हर्षित होकर गुरु, संघ एवं साधर्मिक की पूजा करता है। गृहस्थ साधक फिर अपने द्रव्य का धार्मिक-आध्यात्मिक कार्यों में उपयोग करता है। यदि वह सर्वविरति में अनुराग रखने वाला हो तो वह भी संस्तारक-प्रव्रज्या को अंगीकार कर सर्वविरति प्रधान सामायिक चारित्र में आरूढ़ हो जाता है। शिष्य गुरु के द्वारा अनुमत भक्तपरिज्ञामरण का नियम अंगीकार कर लेता है। वह भवपर्यन्त त्रिविध आहार का त्याग कर देता है। फिर उसे संघसमुदाय के समक्ष चतुर्विध आहार का
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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