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________________ जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन बाह्य लिंग दिए गए हैं उनसे पता चलता है कि यह मरण साधु-साध्वी ही स्वीकार करते थे। जबकि भक्तपरिज्ञा का अविचार भेद गृहस्थों के द्वारा भी स्वीकार्य रहा है। शिक्षा, विनय आदि प्रतिद्वारों के निरूपण से सविचारमरण का वैशिष्ट्य स्पष्ट होता है। 360 परिकर्म विधि के पश्चात् गणसंक्रमण द्वार का निरूपण करते हुए आचार्य वीरभद्र ने उसके 10 प्रतिद्वार बतलाए हैं- 1. दिशा 2. क्षमापना 3. अनुशिष्टि 4. परगण 5. सुस्थित गवेषणा 6. उपसंपदा 7. परीक्षा 8. प्रतिलेखना 9. आपृच्छना 10. प्रतीच्छा। इस गणसंक्रमण द्वार में अपने गण के साधु-साध्वियों से क्षमायाचना की जाती है। आराधना के निमित्त वह साधक दूसरे गण में भी जा सकता है, जैसा कि कहा है एवं पुच्छित्ता सगणं अब्भुज्जयं पविहरंतो । आराहणानिमित्तं परगणगमणे मई कुणइ ।। - आराधनापताका, गाथा 231 वह माया, मिथ्यादर्शन एवं निदान शल्यों को छोड़कर आत्मशुद्धि करता है। वह साधु तप आदि करके संलेखना भी करता है । गण का अधिपति भी इस मरण को अपनाता है। सविचार भक्तपरिज्ञामरण का तृतीय द्वार है - ममत्वव्युच्छेद | इस ममत्वव्युच्छेद द्वार में मात्र शरीर से ममत्व छोड़ने की बात नहीं है, अपितु इसके भी 10 प्रतिद्वार हैं- 1. आलोचना 2. गुण-दोष 3. शय्या 4. संस्तारक 5. निर्यापक 6. दर्शन 7. हानि 8. प्रत्याख्यान 9. क्षमणा ( क्षमायाचना ) 10. क्षमादान । इन द्वारों से मरण की विधि प्रकट होती है I सविचारमरण का चौथा द्वार है - समाधिलाभ | इसके आठ प्रतिद्वार हैं 1. अनुशिष्टि 2. सारणा 3. कवच 4. समता 5. ध्यान 6. लेश्या 7. आराधना 8. परित्याग। संस्तारकगत क्षपक को निर्यापक (चित्त में समाधि लाने वाले योग्य उपदेशक साधु) नौ प्रकार की भाव संलेखना का उपदेश देते हैं, जिसमें मिथ्यात्व का वमन, सम्यक्त्व का ग्रहण, पञ्च महाव्रत की रक्षा आदि सम्मिलित हैं। धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान तथा प्रशस्त लेश्याओं को इसमें अपनाया जाता है। अन्त में शरीरत्याग
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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