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प्रकीर्णक-साहित्य में समाधिमरण की अवधारणा
अकीर्तित, अप्रशंसित एवं अनभ्यनुज्ञात बतलाया गया है। कारणवश दो मरण अभ्यनुज्ञात हैं- वैहायसमरण और गिद्धपिट्ठमरण । भगवान् महावीर द्वारा दो मरण वर्णित, कीर्तित, प्रशंसित और अभ्यनुज्ञात हैं- 1. पादोपगमनमरण और 2. भक्तप्रत्याख्यानमरण।' जो मरण महावीर के द्वारा अभ्यनुज्ञात नहीं हैं उन्हें बालमरण तथा अभ्यनुज्ञात मरणों को पण्डितमरण की श्रेणी में रखा जा सकता है। वैसे स्थानांगसूत्र में मरण के तीन प्रकार भी निरूपित हैं- 1. बालमरण, 2. पंडितमरण और 3. बालपंडितमरण।' असंयमी जीवों का मरण बालमरण, संयमियों का मरण पंडितमरण तथा संयतासंयत अर्थात् श्रावकों का मरण बालपंडितमरण होता है। इन मरणों का सम्बन्ध लेश्या से जोड़ते हुए स्थानाङ्गसूत्र में कहा गया है कि ये तीनों मरण तीन-तीन प्रकार के होते हैं। बालमरण के तीन प्रकार हैं- 1. स्थितलेश्य ( स्थित अशुद्ध लेश्या वाला), 2. संक्लिष्टलेश्य और 3. पर्यवजातलेश्य (विशुद्धि की वृद्धि से युक्त ) । पंडितमरण में लेश्या संक्लिष्ट नहीं होती अतः उसके 1. स्थित लेश्य ( स्थित विशुद्ध लेश्या वाला) 2. असंक्लिष्ट लेश्य एवं 3. पर्यवजात ( प्रवर्धमान विशुद्ध लेश्या वाला) लेश्य ये तीन भेद होते हैं। बालपंडितमरण में 1. स्थितलेश्य, 2. अंसक्लिष्ट लेश्य एवं 3. अपर्यवजात लेश्य ( हानि - वृद्धि से रहित) ये तीन भेद होते हैं। "
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उत्तराध्ययनसूत्र (मूलसूत्र) में मरण के दो भेद प्रतिपादित हैं- 1. अकाममरण एवं 2. सकाममरण । बाल जीवों अर्थात् अज्ञानियों का मरण अकाममरण तथा पंडित जीवों अर्थात् ज्ञानियों का मरण सकाममरण होता है । '
आचारांगसूत्र जो प्रथम अंग आगम है, उसके विमोक्ष नामक अष्टम अध्ययन में संलेखना, संथारा और मरण विधि का विस्तृत वर्णन है। निर्युक्तिकार एवं टीकाकारों ने भक्तप्रत्याख्यान, इंगितमरण एवं पादोपगमनमरण के रूप में आचारांग में वर्णित मरण विधि की व्याख्या की है। उपधि-विमोक्ष, वस्त्र - विमोक्ष, आहार-विमोक्ष, स्वाद- विमोक्ष, सहाय- विमोक्ष आदि विभिन्न चरणों के साथ आचारांगसूत्र में शरीर-विमोक्ष का निरूपण हुआ है। संलेखना के अन्तर्गत शरीर एवं कषाय दोनों को कृश करने का उल्लेख है। अंतिम समय में जब व्यक्ति ग्लान हो जाए, शरीर को वहन करने में असमर्थ हो जाय तो तृण अर्थात् सूखा घास माँगकर