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________________ 326 जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन थी। उन्होंने अपरिग्रही बनने हेतु महाव्रत एवं अणुव्रत का उपदेश दिया। ___ परिग्रह सर्वत्र दुःख का मूल माना गया है। इसीलिए ‘आचारांग सूत्र में कहा गया है-"परिग्गहाओ अप्पाणंअवसक्केज्जा" (आचारांग 1.2.5 सूत्र 89) अर्थात परिग्रह से अपने को दूर रखो। परिग्रह की भावना शान्ति एवं समता को भंग कर अशान्ति एवं विषमता उत्पन्न कर देती है। जीवन में आकुलता, विषाद और नीरसता का विष घोल देती है। यह हृदय को संकीर्ण, बुद्धि को भोगोन्मुख, मन को चपल और इन्द्रियों को अनियन्त्रित बना देती है। बाहर से सुख-सामग्रियों का अम्बार लगे होने पर भी भीतर से सुख को सोख लेती है। परिग्रह की कामना तृष्णा को उत्तरोत्तर बढ़ाकर मनुष्य को अनन्त दुःख के भयानक जंगल में छोड़ देती है जहाँ पर भटकाव के अतिरिक्त कोई मार्ग दिखाई नहीं देता। परिग्रह के दुष्परिणाम परिग्रह भाव के अनेक दुष्परिणाम प्रतीत होते हैं। उनमें कतिपय इस प्रकार सम्भव हैं- 1. अन्य मनुष्यों के प्रति संवेदनशीलता का समापन, 2. व्यवहार में कठोरता एवं क्रूरता का प्रवेश, 3. स्वहित से अनभिज्ञता, 4. हिंसा में अभिवृद्धि, 5. धर्म-श्रवण एवं धर्माचरण में अरुचि, 6. प्रदर्शन की भावना में वृद्धि, 7. मानवीय मूल्यों का हास, 8. पर-पदार्थों के प्रति आसक्ति के कारण आत्म-विकास की उपेक्षा, 9. आत्म-विकास की उपेक्षा से पदार्थ-विस्तार में रुचि, 10. अनावश्यक संग्रह की प्रवृत्ति, जिससे वस्तु के वितरण में अव्यवस्था एवं समाज में आर्थिक असन्तुलन, 11. कम श्रम में अधिक लाभ प्राप्त करने की प्रवृत्ति, 12. लोभ एवं तृष्णा की सतत उपस्थिति, 13. अनैतिकता, कालाबाजारी, रिश्वतखोरी एवं भ्रष्टाचार को प्रोत्साहन, 14. वस्तुओं के अनावश्यक संग्रह से मंहगाई में वृद्धि, 15. प्राकृतिक संसाधनों का दोहन, 16. धन-संग्रह एवं व्यापार में प्रतिस्पर्धा तथा हिंसा का प्रयोग, 17. असत्य, चोरी आदि दोष, 18. विलासिता का प्रयोग करते हुए हिंसा आदि दोष, 19. ईर्ष्या, द्वेष एवं तनाव में अभिवृद्धि, 20. शारीरिक एवं मानसिक अस्वस्थता, 21. पारिवारिक वैमनस्य एवं कलह, 22. अहं की पुष्टि, 23. लोभ के कारण असन्तोष, 24. मानवीय मूल्यों से अधिक धन को महत्त्व आदि। इनमें कुछ दोष आध्यात्मिक हैं तो कुछ सामाजिक एवं आर्थिक असन्तुलन से
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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