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________________ जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन परिग्रह के समान जगत् में जीव के लिए कोई बन्धन नहीं है। यह बन्धन मनुष्य को पराधीन बनाता है। परिग्रह का यह आंतरिक अथवा वास्तविक रूप है। 324 दशवैकालिक एवं तत्त्वार्थसूत्र में पर - पदार्थों एवं प्राणियों के निमित्त से जीव में उत्पन्न मूर्च्छा को परिग्रह कहा गया है । ' मूर्च्छा वह है जो व्यक्ति को स्वहित से बेभान कर देती है, किसी अंश में नशे में ला देती है, व्यक्ति अपने हित से बेखबर होकर पर-पदार्थों एवं व्यक्तियों में अपना सुख खोजकर उनसे बंधन को प्राप्त होता है। यह परिग्रह बन्धन स्वरूप है। व्यक्ति स्वयं उनसे बंधता है। परिग्रह को समझने के लिए प्रायः आसक्ति एवं ममत्व शब्दों का प्रयोग किया जाता है। मनुष्य जिन वस्तु एवं व्यक्तियों में अपना सुख मानता है, जिनमें संरक्षा एवं सुरक्षा की आशा रखता है, उनके प्रति वह या तो आसक्त होता है या उनके प्रति ममत्व करता है। यह परिग्रह मोहकर्म का ही एक रूप है, अतः आभ्यन्तर परिग्रह के भेदों में मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद व नपुंसक वेद की गणना की जाती है। अतः पूर्णतः अपरिग्रही होने के लिए मोहकर्म का क्षय अनिवार्य है। यह आंतरिक परिग्रह जो पदार्थों से सम्बन्ध रखने के कारण होता है, उपचार से जब पदार्थों पर ही आरोपित कर दिया जाता है तब पदार्थों को भी 'परिग्रह ' कहा जाता है। प्राचीन काल में मोटे रूप से स्त्री के प्रति ही पुरुष की गहरी आसक्ति होती थी, अतः उसको 'परिग्रह' नाम दिया गया। संस्कृत साहित्य के मूर्धन्य कवि कालिदास ने अपनी प्रसिद्ध कृति 'अभिज्ञानशाकुन्तलम्' में परिग्रह शब्द का प्रयोग ‘पत्नी’ के अर्थ में ही किया है।' यह आसक्ति अन्य वस्तुओं के साथ भी होती है। अतः नौकर-चाकर, गाय, बैल, भैंस आदि पशुओं तथा भूमि, भवन एवं अन्य भोग्य - पदार्थों को भी परिग्रह की कोटि में समाविष्ट किया गया। आज वैज्ञानिक अनुसंधान के परिणामस्वरूप भोग्य-पदार्थों की अगणित वृद्धि हुई है। विविध प्रकार की सुख-सुविधाओं का विस्तार हुआ है। कई सुविधाएँ प्रत्येक परिवार के लिए आवश्यक बन गई हैं। नये-नये पदार्थों का संग्रह करने की मनोवृत्ति मनुष्य में जन्म लेती जा रही है, किन्तु पदार्थ अनन्त हैं, उनका कोई पार नहीं, अतः वस्तुओं का संग्रह - रूप परिग्रह बढ़ता जा रहा है। इस परिग्रह का मूल
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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