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________________ आचारांगसूत्र में अहिंसा 307 प्राणियों को क्यों आर्त बना रहा हूँ। किसी प्राणी को दिया गया दुःख या परिताप अपने लिए भी परिणाम में परितापकारी होता है। सत्य को जानने के लिए आचारांगसूत्र में बार-बार प्रेरणा की गई है- सच्चम्मि धितिं कुव्वहा।" अर्थात् सत्य को जानने में बुद्धि लगाएँ। जो सत्य को जानता है वह स्वतः हिंसा से विरत हो सकता है, क्योंकि उसे अहिंसा अपने लिए एवं प्राणिमात्र के लिए कल्याणकारिणी एवं अभय प्रदायिनी प्रतीत होती है। दूसरों के लिए मन, वचन एवं काया से किसी भी प्रकार का अनिष्ट न करने की प्रेरणा हमें आचारांगसूत्र से प्राप्त होती है। दूसरे का अनिष्ट क्यों न करें तथा दूसरे को अपनी भाँति शान्ति उपजाने में सहयोगी क्यों बनें, इसके लिए आत्मवद्भाव के विकास की आवश्यकता है। जिस प्रकार मुझे डंडे से, कपाल आदि से पीटे जाने पर पीड़ा होती है उसी प्रकार अन्य प्राणियों को भी होती है, इस प्रकार की संवेदनशीलता के साथ आत्मवद्भाव का विकास सम्भव है। यह आत्मवद्भाव अहिंसा का अत्यन्त समर्थ उपाय है। आत्मवद्भाव अपनाकर हम समस्त प्राणियों के प्रति मैत्री, करुणा एवं अभय का संदेश दे सकते हैं। अहिंसक समाज ही उन्नत समाज होता है। आचारांगसूत्र हमें न केवल मानव की हिंसा को रोकने की प्रेरणा करता है, अपितु पशु-पक्षियों की रक्षा के लिए भी प्रेरित करता है। वह मानव की संवेदनशीलता को गहरी करता है तथा पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं वनस्पति का भी समारम्भ घटाने हेतु प्रेरित करता है। __ आज विश्वस्तर पर मानव के अधिकारों के संरक्षण के लिए मानवाधिकार आयोग आदि संस्थाएँ कार्य कर रही हैं। इसी प्रकार की संस्थाएँ पर्यावरण-संरक्षण की दृष्टि से पशु-पक्षियों एवं प्राणियों के जीवनाधिकार के लिए भी स्थापित की जानी चाहिए। मनुष्य सबसे बुद्धिमान् प्राणी है, अतः वह अपना भी हित सोच सकता है तथा अन्य प्राणियों के हित में भी कार्य कर सकता है। इसलिए आचारांग सूत्र ने बार-बार मनुष्य को सावधान किया है कि तुम हिंसा से विरत बनो। आचारांग में प्रतिपादित अहिंसा को आज पूरे विश्व में फैलाने की आवश्यकता है। गाँधीजी का अहिंसाविषयक चिन्तन आज सम्पूर्ण विश्व में आदृत हो रहा है, उसके अधिक ठोस आधार एवं सूक्ष्म चिन्तन के सूत्र आचारांगसूत्र में
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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