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________________ जैन प्रमाणशास्त्र में अवग्रह का स्थान 219 धवला टीकाकार वीरसेनाचार्य दर्शन और ज्ञान के स्वरूप का विचार करते हुए दर्शन को आत्मप्रकाशक और ज्ञान को परप्रकाशक मानते हैं, किन्तु यह मत भी आगम परम्परा के अनुकूल नहीं है, क्योंकि तब चक्षुदर्शन आदि दर्शन के भेद घटित नहीं हो सकते। चक्षुदर्शन आदि परप्रकाशक दिखाई देते हैं। दिगम्बर आगमों की मान्यता है कि स्वरूप का ग्रहण दर्शन है, किन्तु आचार्य विद्यानन्द ने इस मान्यता का खण्डन किया है, यथा-आत्मग्रहण भी दर्शन नहीं है, क्योंकि चक्षु, अवधि और केवलदर्शन के अभाव का प्रसंग आता है। कुछ दिगम्बर दार्शनिक न्यायशास्त्र की अपेक्षा से सामान्य ग्रहण को दर्शन तथा सिद्धान्त की अपेक्षा से स्वरूपग्रहण को दर्शन प्रतिपादित करते हैं। ___ प्रमाणशास्त्रीय चिन्तक पूज्यपाद, अकलङ्क, विद्यानन्द आदि दिगम्बर दार्शनिक और हेमचन्द्र, देवसूरि आदि श्वेताम्बर दार्शनिक 'दर्शन सामान्यग्राही होता है' ऐसा मानते हुए उसका सत्तामात्र विषय अङ्गीकार करते हैं । सत्तामात्र के ग्राहक उस दर्शन को वे अवग्रह से पूर्व रखते हैं। उनके मत में विषय और विषयी के सन्निपात (सन्निकर्ष) के होने पर दर्शन होता है तथा उसके पश्चात् अवग्रह होता है। इस प्रकार प्रमाणशास्त्रीय सन्दर्भ में क्रमभेद से दर्शन और अवग्रह में भेद स्वीकार किया गया है। अवग्रह ज्ञान प्रमाण है या नहीं? __ अब यह विचार किया जा रहा है कि अवग्रह ज्ञान प्रमाण है या नहीं ? यदि प्रमाण है तो प्रत्यक्ष प्रमाण का लक्षण उसमें अन्वित होता है या नहीं ? इस सम्बन्ध में दो परम्पराएं प्राप्त होती हैं । एक आगमिक परम्परा और दूसरी प्रमाणमीमांसीय परम्परा । आगमिक परम्परा में अवग्रह का प्रमाण होना सिद्ध नहीं होता, किन्तु प्रमाणमीमांसीय परम्परा में इसकी सिद्धि के लिए समुचित प्रयास किया गया है। __ प्रमाण के जैन दर्शन में अनेक लक्षण दिए गए हैं, यथा(i) प्रमाणंस्वपराभासिज्ञानं बाधविवर्जितम् ।-सिद्धसेन, न्यायावतार, 1 स्व एवं पर का आभासी (व्यवसायक) एवं बाधारहित ज्ञान प्रमाण है। (ii) स्वपरावभासकंयथाप्रमाणंभुविबुद्धिलक्षणम् ।-समन्तभद्र, स्वयम्भूस्तोत्र, 63 स्व एवं पर का अवभासक (व्यवसायात्मक/प्रकाशक) ज्ञान प्रमाण है।
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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