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________________ 218 . जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन ऐकान्तिक भेद नहीं है । ‘जीव का लक्षण उपयोग है' यह जैन परम्परा में सर्वमान्य है। वह उपयोग ज्ञान और दर्शन के भेद से दो प्रकार का होता है। जब हमारे द्वारा वस्तु का सामान्य ग्रहण होता है तो दर्शनोपयोग होता है तथा जब विशेष ग्रहण होता है तो ज्ञानोपयोग कहा जाता है। (मान्यता है कि एक समय में एक ही उपयोग होता है एवं ये दोनों क्रम से होते रहते हैं। अन्तर्मुहूर्त में ये बदलते रहते हैं।) यहाँ प्रश्न खड़ा होता है कि आचार्य जिनभद्र अर्थावग्रह को सामान्यग्राही मानते हैं और सिद्धसेन दर्शन को सामान्यग्राही मानते हैं तब दर्शन और अर्थावग्रह के स्वरूप में कोई भेद है या नहीं ? आचार्य सिद्धसेन इसका समाधान करते हैं कि अवग्रह ज्ञान दर्शन से भिन्न है। यदि अवग्रह ज्ञान को दर्शन माना जाये तो सम्पूर्ण मतिज्ञान को दर्शन मानना होगा। तब फिर दर्शन और ज्ञान के मध्य भेद सिद्ध नहीं किया जा सकेगा। अतः मतिज्ञान से अस्पृष्ट एवं अविषयभूत अर्थ में दर्शन प्रवृत्त होता है। मतिज्ञान में चक्षु एवं मन से व्यंजनावग्रह स्वीकार नहीं किया जाता, तब इन दोनों (चक्षु एवं मन) से दर्शन होता है। उसको क्रमशः चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन कहते हैं। इस प्रकार अवग्रह ज्ञान से चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन भिन्न हैं। अचक्षु शब्द से प्रायः चक्षु से भिन्न सारी इन्द्रियों का ग्रहण होता है, किन्तु सिद्धसेन के मत में अचक्षु शब्द से मात्र मन ही गृहीत होता है। ___ जिनभद्र क्षमाश्रमण विशेषावश्यकभाष्य में दर्शन का विशद विवेचन नहीं करते हैं, किन्तु एक स्थान पर उन्होंने अवग्रह और ईहा को दर्शन रूप में स्वीकार करने का संकेत किया है, यथा-अवाय और धारणा ज्ञान हैं तथा अवग्रह एवं ईहा का दर्शन होना इष्ट है। यहां आचार्य ने अपना मत प्रस्तुत नहीं किया, अपितु परम्परा का ही उल्लेख किया है। यदि इस मत को स्वीकार करके विचार करें तो अवायज्ञान एवं धारणाज्ञान का ही समावेश ज्ञान के भेदों में होता है, उसके पूर्व होने वाले अवग्रह और ईहाज्ञान सामान्यग्राही होने के कारण दर्शन के ही अङ्ग सिद्ध होते हैं। दर्शन और ज्ञान के मध्य प्रायः साकार और निराकार के आधार पर भेद किया जाता है। दर्शन निराकार और निर्विकल्पक होता है, ज्ञान साकार और सविकल्पक होता है। अवग्रह में विशेषतः अर्थावग्रह में निर्विकल्पकता और निराकारता प्राप्त होती है, अतः जिनभद्र के मत में किसी अपेक्षा से अवग्रह भी दर्शन हो सकता है।
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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