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________________ जैन प्रमाणशास्त्र में अवग्रह का स्थान 1 जैनदर्शन में स्व एवं पर पदार्थ के निश्चयात्मक ज्ञान को प्रमाण कहा गया है । प्रमाण की विशेषता होती है कि यह जीवन-व्यवहार में त्याज्य, ग्राह्य एवं उपेक्षणीय पदार्थ का बोध कराता है । ऐसा बोध हमें निश्चयात्मक ज्ञान से ही होता है । वह निश्चयात्मक ज्ञान संशय, विपर्यय (विपरीत ज्ञान) एवं अनध्यवसाय (अनिश्चयात्मक) ज्ञान से भिन्न /रहित होता है । जैनदर्शन में पाँच प्रकार के ज्ञान प्रतिपादित हैं- मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनः पर्यायज्ञान एवं केवलज्ञान । इस सबका समावेश प्रमाण-भेदों में किया गया है । मतिज्ञान की प्रक्रिया में अवग्रह (सामान्यग्राही), ईहा (अवग्रह से अधिक ग्राही), अवाय (निर्णयात्मक ज्ञान) एवं धारणा (अवाय ज्ञान की दृढ़ता, जो स्मृति में कारण होती है) का प्रतिपादन हुआ है । अवग्रहादि इन चार ज्ञानों में अवाय एवं धारणा ज्ञान तो निश्चयात्मक होने से प्रमाण होते ही हैं, किन्तु अवग्रह एवं ईहा को प्रमाण किस आधार पर माना जाए, यह प्रश्न खड़ा होता है । प्रस्तुत आलेख में अवग्रह की प्रमाणता पर चर्चा की गई है । अवग्रह के भी दो प्रकार हैं- व्यंजनावग्रह एवं अर्थावग्रह । इनमें अर्थावग्रह को प्रमाण मानने के सम्बन्ध में कुछ आधार प्राप्त होते हैं, जिनका विचार करते हुए उसे प्रमाणकोटि में रखा गया है, किन्तु व्यंजनावग्रह प्रमाणकोटि में नहीं आता है । अर्थावग्रह को प्रमाण मानने पर ईहा ज्ञान को प्रमाण स्वीकार करने में कोई बाधा नहीं है । 1 जैन प्रमाण - शास्त्रों में आगम-निरूपित ज्ञान ही प्रमाणरूप में प्रतिष्ठित है। ज्ञान की प्रमाण के रूप में प्रतिष्ठा बौद्धदार्शनिकों के द्वारा भी स्वीकृत है, किन्तु वे निर्विकल्पक ज्ञान को भी प्रमाण मानते हैं। जैन दार्शनिक इस सम्बन्ध में मतभेद रखते हैं। न्यायदर्शन में प्रमा का करण होने से इन्द्रिय और इन्द्रियार्थसन्निकर्ष को, मीमांसा दर्शन में ज्ञातृव्यापार को और सांख्यदर्शन में इन्द्रियवृत्ति को प्रमाण माना गया है। इन्द्रिय, इन्द्रियार्थसन्निकर्ष आदि जड़ होने के कारण हान, उपादान और उपेक्षा का ज्ञान कराने में समर्थ नहीं हैं, इसलिए जैन दार्शनिक ज्ञान से भिन्न इन्द्रिय आदि को प्रमाण स्वीकार नहीं करते हैं।' वे स्व एवं पर के निश्चयात्मक सविकल्पक ज्ञान को ही हान, उपादान और उपेक्षा का ज्ञान कराने में समर्थ मानते हैं, अतः वे इसी को प्रमाण स्वीकार करके निर्विकल्पक ज्ञान की प्रमाणता का खण्डन करते हैं।
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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