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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
अनन्तभेद उत्पन्न हो जाते हैं, क्योंकि पररूप से व्यावृत्ति भी वस्तु के स्वभाव को सिद्ध करती है। यदि वस्तु का स्वभाव पर रूप से व्यावृत्ति को न माना जाए तो समस्त अर्थों के स्वरूप में संकरता का दोष आ जाएगा। तात्पर्य यह है कि उत्पद्यमान, विनश्यमान पर्याय वाली ध्रुव वस्तु में अन्य अनन्त पर वस्तुओं से व्यावृत्ति होती है। वह व्यावृत्ति भी उस वस्तु के स्वभाव को ही स्पष्ट करती है।
वस्तु की अनेकधर्मात्मकता और अनन्तधर्मात्मकता अनेकान्तवाद के आधार रहे हैं। अनेकान्तवाद कोई वाद नहीं, अपितु एक दर्शन है जो वस्तु का विभिन्न दृष्टिकोणों से विवेचन करता है। आर्षवाक्य-'उप्पनेइ वा विगमेइ वा धुवेइ वा' के आधार पर वाचकमुख्य उमास्वाति ने वस्तु को उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक प्रतिपादित किया-उत्पादव्ययधौव्ययुक्तं सत्। इसी के आधार पर समन्तभद्र ने उसे त्रयात्मक सिद्ध किया -
"घटमौलिसुवर्णार्थी, नाशोत्पादस्थितिष्वयम्। शोकप्रमोदमाध्यस्थ्यं, जनोयातिसहेतुकम्॥" पयोव्रतो न दध्यत्ति, न पयोऽत्ति दधिव्रतः।
अगोरसवतो नोभे, तस्मात् वस्तुत्रयात्मकम् ।। स्वर्ण के घट का, स्वर्ण के मुकुट का और केवल स्वर्ण का इच्छुक व्यक्ति क्रमशः स्वर्ण-घट का नाश होने पर शोक को, स्वर्ण मुकुट उत्पन्न होने पर हर्ष को
और दोनों ही अवस्थाओं में स्वर्ण की स्थिति होने से माध्यस्थ्य भाव को प्राप्त होता है। यह सब सहेतुक होता है । इस उदाहरण से वस्तु की त्रयात्मकता सिद्ध होती है। इसी प्रकार अन्य उदाहरण दिया गया- दूध सेवन करने का व्रतधारी दही नहीं खाता तथा दही सेवन का व्रतधारी दूध नहीं पीता । जो गोरस का त्यागी होता है वह दोनों का सेवन नहीं करता, इसलिए वस्तु त्रयात्मक है। त्रयात्मकता में उत्पाद, व्यय एवं ध्रौव्य का सिद्धान्त समाहित है। स्वर्णघट का व्यय एवं स्वर्ण मुकुट का उत्पाद तथा स्वर्णद्रव्य का ध्रौव्य त्रयात्मकता को सिद्ध करता है तथा दूध का व्यय, दही का उत्पाद एवं गोरस की स्थिरता भी त्रयात्मकता को सिद्ध करती है। द्रव्यपर्यायात्मकता
सिद्धसेन दिवाकर ने ध्रौव्य को द्रव्य एवं उत्पादव्यय को पर्याय मानकर वस्तु का