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________________ 124 जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन 64. सस्यमिव मर्त्यः पच्यते सस्यमिवाजायते पुनः ।- कठोपनिषद्, 1.1.6 65. पुण्यो वै पुण्येन कर्मणा भवति, पापः पापेनेति ।- बृहदारण्यकोपनिषद्, 3.2.13 66. संन्यासोपनिषद्, 2.98 67. ब्रह्मबन्दूिपनिषद्, 2 68. रामायण, उत्तरकाण्ड, सर्ग 15, श्लोक 23 69. दैवे पुरुषकारे च खलु सर्व प्रतिष्ठितम् । पूर्वजन्मकृतं कर्मेहार्जितं तद् द्विधाकृतम् ।।- शुक्रनीति, 1.49 70. योगसूत्र, 4.7-8 71. तह भव्वत्तं जं कालनियइपुवकयपुरिसकिरियाओ। . तह भव्वत्तं जं कालनियइपुवकयपुरिसकिरियाओ। अक्खिवइ तह सहावं ता तदधीणं तयं पि भवे ।।- बीजविंशिका, 9 72. छान्दोग्योपनिषद्, अध्याय 3, खण्ड 14, मन्त्र 1 73. द्वादशारनयचक्र, भाग 1, पृ. 179-182 74. विशेषावश्यकभाष्य एवं मल्लधारी हेमचन्द्र की वृत्ति, गाथा 1643 75. सन्मतितर्कटीका (तत्त्वबोधविधायिनी), पृ. 715 76. द्वादशारनयचक्र, भाग 1 पृ. 246-248 77. सन्मतितर्कटीका (तत्त्वबोधविधायिनी), पृ. 715 78. प्रमेयकमलमार्तण्ड, प्रथम भाग, पृ. 175-190 79. स्याद्वादमंजरी, श्लोक 5 की टीका। 80. उट्ठाणे कम्मे बले वीरिए पुरिसक्कारपरक्कमे, तं चेव जाव अफासे पन्नत्ते । -व्याख्याप्रज्ञप्ति, शतक 12, उद्देशक 5, सूत्र 11
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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