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________________ कारण- कार्य सिद्धान्त एवं पंचकारण-समवाय 2. औपशमिकक्षायिकौ भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिकपारिणामिकौ च 1 -तत्त्वार्थसूत्र, 2.1 3. छव्विधे भावे पण्णत्ते ओदइए, उपसमिते, खतिते, खाओवसमिते, परिणामिते, सन्निवाइए । -अनुयोगद्वारसूत्र, नामाधिकार, सूत्र 233 तत्र भवप्रत्ययो नारकदेवानाम् । - तत्त्वार्थसूत्र, 1.22 4. 5. शरीरवाङ्मनः प्राणापानाः पुद्गलानाम् । - तत्त्वार्थसूत्र, 5.19 6. व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र, शतक 13, उद्देशक 4 7. व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र, शतक 13, उद्देशक 4 8. जीवपरिणामहेदुं कम्मत्तं पुग्गला परिणमंति । पुग्गलकम्मणिमित्तं तहेव जीवोवि परिणमइ ।। - समयसार, गाथा 80 9. व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र, शतक 8, उद्देशक 1 10. विशेषावश्यकभाष्य, दिव्यदर्शन ट्रस्ट, मुम्बई, द्वितीयभाग, पृ. 434 11. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 2112-2118 121 12. (i) कार्यकारणभावश्चार्थक्रियासिद्धौ सिध्येत् । - षड्दर्शनसमुच्चय, वृत्ति, भारतीय ज्ञानपीठ, पृ. 389 (ii) अर्थक्रिया न युज्येत नित्यक्षणिकपक्षयोः क्रमाक्रमाभ्यां भावानां सा हि लक्षणतया मता । - भट्ट अकलंक, लघीयस्त्रय, 4 13. (i) मल्लधारी हेमचन्द्र, विशेषावश्यकभाष्य वृत्ति, गाथा 2103 एवं 2911 (ii) स्याद्वादरत्नाकर, भारतीय बुक कार्पोरेशन दिल्ली, पृ. 803 14. जैनदर्शन में सांख्य के सत्कार्यवाद, न्याय-वैशेषिक के असत्कार्यवाद, वेदान्त के सत्कारणवाद एवं बौद्धों के असत्कारण का निरसन कर सदसत्कार्यवाद एवं सदसत्कारणवाद की सिद्धि की गई है। 15. अष्टसहस्री, पृ. 210, बृहद्रव्यसंग्रहटीका, गाथा 21, स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा 217 16. प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग-1, पृ. 416-417 17. विस्तृत चर्चा हेतु, द्रष्टव्य, डॉ. श्वेता जैन, जैनदर्शन में कारण- कार्य व्यवस्थाः एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी, 2008, अध्याय सप्तम, पृ. 567-574 18. कालः प्रजा असृजत, कालो अग्रे प्रजापतिम् ।- स्वयम्भूः कश्यपः कालात् तपः कालादजायत ।। - अथर्ववेद, काण्ड 19, अध्याय 6, सूक्त 43, मंत्र 10
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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