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________________ कारण-कार्य सिद्धान्त एवं पंचकारण-समवाय 119 है, वही मोक्ष में सहायक होती है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र के रूप में इसे त्रिरत्न कहा जाता है। जैनदर्शन में समता की साधना हो या अप्रमत्तता की, अहिंसा का आचरण हो या अपरिग्रह का, परीषजय का प्रसंग हो या आभ्यन्तर तप के आराधन का, स्वाध्याय का क्रम हो या ध्यान का, सर्वत्र पुरुषकार या पुरुषार्थ की आवश्यकता प्रतिपादित की गई है। पुरुषार्थवादी दर्शन होकर भी इसमें काल, स्वभाव, नियति एवं पूर्वकृतकर्म की कारणता को भी महत्त्व दिया गया, इसलिए इसे एकान्त पुरुषार्थवादी भी नहीं कहा जा सकता है। हाँ, पुरुषार्थ की प्रधानता के साथ अन्य कारणों को भी यथोचित महत्त्व दिया जा सकता है। इसीलिए इसमें पंचकारणों के समवाय को अंगीकार किया गया है। काल, स्वभाव, नियति आदि पाँच कारणों में कभी कोई प्रधान होता है तो कभी कोई गौण। कभी जीव की प्रवृत्ति ही न हो तो अजीव से जन्य कार्योत्पत्ति में पुरुषार्थ एवं पूर्वकृत की कारणता का होना आवश्यक नहीं होता। कालादि में भेद-व्यवस्था काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृतकर्म एवं पुरुषार्थ में सूक्ष्मतया क्या भेद है, इसे समझना आवश्यक है। काल की कारणता में वस्तु के स्वभाव की कारणता का समावेश नहीं होता, इसलिए काल को स्वभाव से भिन्न मानना चाहिए। मूंग की फली जब खेत में पकती है तो उसमें काल भी कारण है एवं स्वभाव भी, किन्तु कालवादी मात्र काल को कारण कहेगा तथा स्वभाववादी मात्र स्वभाव को कारण कहेगा। स्वभाववादी मूंग को आंच पर पकाते समय कहेगा कि जो मूंग पकने के स्वभाव वाले हैं वे ही पकते हैं एवं कडु मूंग लाख प्रयत्न करने पर भी नहीं पकते। नियति में काल एवं स्वभाव की अपेक्षा रहती है, किन्तु नियतिवाद के अनुसार नियति ही कारण है, काल एवं स्वभाव नहीं। नियतिवाद का सिद्धान्त एक ऐसा सिद्धान्त है जिसमें समस्त कारण समाहित हैं। नियतिवाद जीव एवं अजीव के सब कार्यों एवं अवस्थाओं को नियतिजन्य मानता है । जो भी भवितव्य है वह सुनिश्चित है, वह होकर ही रहेगा। नियतिवाद एक ऐसा सिद्धान्त है जिसमें काल, स्वभाव, पूर्वकृतकर्म एवं पुरुषार्थ सबका समावेश हो जाता है, यह हमारी समस्याओं का मनोवैज्ञानिक उत्तर तो हो सकता है, किन्तु इससे आत्म-स्वातन्त्र्य का सिद्धान्त
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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