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________________ 118 जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन है कि बिना उद्देश्य के एवं अनुकम्पा से पुरुष के द्वारा सृष्टि की रचना करना उचित नहीं, क्योंकि तब दुःखी प्राणियों की रचना नहीं की जा सकती। दूसरी बात यह है कि वह न युगपत् जगत् का निर्माण कर सकता है, न ही क्रम से, क्योंकि दोनों में दोष आते हैं।" ____ ब्रह्मवाद का निरूपण एवं निरसन प्रभाचन्द्र (11वीं शती) ने प्रमेयकमलमार्तण्ड में विस्तार से किया है। ब्रह्मवाद के अनुसार ब्रह्म ही समस्त जगत् के चेतन-अचेतन, मूर्त-अमूर्त आदि पदार्थों का उपादान कारण होता है। मायोपहित ब्रह्म ही जगत् का कारण है। प्रभाचन्द्र ने ब्रह्मवाद की अद्वैतता एवं जगत्कारणत्व का सबल खण्डन किया है। ईश्वरवाद मुख्यतः न्याय-वैशेषिक दर्शन का सिद्धान्त है। वेदान्त में भी इसे अज्ञान की समष्टि से आच्छन्न ब्रह्म के रूप में स्वीकृति दी गई है। ईश्वरवाद की सिद्धि में न्यायदार्शनिक उदयन ने न्यायकुसुमांजलि ग्रन्थ में विभिन्न हेतु दिए हैं, किन्तु उनका निरसन अभयदेवसूरि, प्रभाचन्द्र, मल्लिषेणसूरि ने अपनी कृतियों में सबल रूप से किया है। मल्लिषेण ने स्याद्वादमंजरी में स्पष्टतः सिद्ध किया है कि ईश्वर जगत् का कर्ता नहीं है, क्योंकि एक ईश्वर द्वारा जगत् का निर्माण सम्भव नहीं। वह न सर्वज्ञ है और न ही जगत् के कार्य में स्वतन्त्र।" ___ पुरुष का जीव अर्थ ग्रहण करके पुरुषकार, पुरुषक्रिया अथवा पुरुषार्थ की स्थापना को जैनदर्शन में पूर्ण स्वीकृति है, क्योंकि जैनदर्शन श्रमणसंस्कृति का दर्शन होने के कारण मूलतः पुरुषार्थवादी है। यहाँ उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पराक्रम आदि को महत्त्व दिया गया है। जैनदर्शन का मन्तव्य है कि सुख-दुःख का कर्ता आत्मा स्वयं है। दुःख दूसरे के द्वारा नहीं, स्वयं के द्वारा उत्पन्न हैं- अत्तकडे दुक्खे नो परकडे'। पुरुषार्थ के चार प्रकारों की दृष्टि से कहें तो जैनदर्शन में धर्म पुरुषार्थ का सर्वाधिक महत्त्व है, क्योंकि वही मोक्ष का साधन बनता है। अर्थ एवं काम पुरुषार्थ को यहाँ त्याज्य कहा गया है। यदि उनका सेवन भी किया जाए तो धर्म पुरुषार्थ पूर्वक सेवन किया जाना चाहिए। जैनदर्शन अहिंसा, संयम एवं तप में पराक्रम करने की शिक्षा देता है। संवर एवं निर्जरा की साधना को ही जैनदर्शन में महत्त्व दिया गया
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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