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पञ्चमोऽध्यायः मकान में सब जगह प्रकाशित रहता है। इस तरह जीव प्रदेश का संकोच और विस्तार होने से छोटे या मोटे पाँच प्रकार के शरीर स्कन्ध को धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीवप्रदेश समुदाय अवगाहना में प्राप्त करता है, धर्म, अधर्म, भाकाश और जीव अरूपी होने से आपस में पुद्गलों में रहते विरोध नहीं आता.
अब धर्मास्तिकायादि के लक्षण कहते हैं(१७) गतिस्थित्युपग्रहो धर्माधर्मयोरुपकारः ।
गति सहाय रूप प्रयोजन (गुण) धर्मास्तिकाय का और स्थिति सहाय रूप प्रयोजन अधर्मास्तिकाय का है. (१८)
आकाशस्यावगाहः । आकाश का प्रयोजन सर्व द्रव्यों को अवगाह अवकाश देने का है. (१६) शरीरवाङ्मनःप्राणापानाः पुद्गलानाम् ।
शरीर, वचन, मन, प्राण (उच्छवास) और अपान (निःश्वास) ये पुद्गलों का प्रयोजन कार्य जीव को है. (२०) सुखदुःखनीवितमरणोपग्रहाश्च ।
सुख, दुःख, जीवित और मरण के कारण पुद्गल ही होते हैं. इच्छा माफिक स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण और शब्द की प्राप्ति सुख का कारण, अनिष्ट ( इच्छा के खिलाफ) स्पर्शादि की प्राप्ति दुःख का कारण, विधि पूर्वक स्नान, आच्छादन (पहनना) विलेपन तथा भोजनादि में आयुष्य का अनपर्वतन ( कम नहीं होना) वह जीने का कारण और विष, शस्त्र, अग्नि वगेरा से आयुष्य का अपवर्तन कम होना वह मरण का कारण है. (२१)
परस्परोपग्रहो जीवानाम् ।