________________
२६
श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम्
(४५) निरुपभोगमन्त्यम् । अन्त का जो (कार्मण) शरीर है वो उपभोग रहित है। इससे सुख, दुःख नहीं भुगता जाता; विशेष करके कर्म बन्ध और निर्जरा भी उस शरीर से नहीं होती बाकी के उपभोग सहित हैं
(४६) गर्भसम्मूर्च्छनजमाद्यम् । पहला (औदारिक) शरीर गर्भ और समूर्छन से होता है ।
(४७) वैक्रियमौपपातिकम् । वैक्रिय शरीर उपपात जन्म वाला (देव, नारकी) को होता है।
(४८) लब्धिप्रत्ययं च । तिथंच और मनुष्य को लब्धि प्रत्ययिक भी वैक्रिय शरीर होता है (४६) शुभं विशुद्धमव्याघाति चाहारकं चतुर्दशपूर्वधरस्यैव ।
शुभ, विशुद्ध, अव्याघाति, (व्याघात रहित ) और लब्धि प्रायक ऐसा आहारक शरीर है और वह चौद पूर्वधर को ही होता है। शुभ ( अच्छे ) पुद्गल द्रव्य से निष्पन्न ओर शुभ परिणाम वाला जिससे शुभ कहा। विशुद्ध (निर्मल ) द्रव्य से निष्पन्न और निवेद्य जिससे शुद्ध कहा। किसा अर्थ में अत्यन्त सूक्ष्म सदेह हुवा हो ऐसे पूर्वधर अर्थ का निश्चय करने के लिये महाविदेहादि दूसरे क्षेत्र में विराजमान भगवन्त के पास औदारिक शरीर से नहीं जा सकने से आहारक शरीर करके जावे; जाकर भगवन्त के दर्शन कर संदेह दूर कर पीछे आकर उसका त्याग करे भर्तमुहूर्त तक यह शरीर रहता है। स्थूल और पुद्गलों से बना हुवा, उत्पन्न हुवे बाद फोरन ही समय समय बढ़े, घटे, परिणमे