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श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम्
पुजाक उत्कृष्ट स्थिति वाला देवपणे सहस्रार देवलोक में उपजाता है । बकुश और प्रतिसेवना कुशील बाईस सागरोपम की स्थिती तक के देवपणे भारण अच्युत देवलोक में उपजता है । सब साधु जघन्य से पल्योपम पृथक्त्व के आयुवाले सौधर्म कल्प में उपजता हैं. कषाय कुशील और निर्मन्थ सर्वार्थसिद्ध में उपजता है । स्नातक निर्माण पद को पाते हैं ।
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भत्र स्थान आश्रयी कहते हैं - कषाय निमित्तक संयमस्थान असंख्याता है, उन में सब से जघन्य लब्धि स्थानक पुलाक और कषाय कुशील को होते हैं। वे दोनों एक साथ असंख्याता स्थान को लाभते हैं । (प्राप्त होते हैं) फिर पुलाक विच्छेद पाते हैं ।
और कषाय कुशील असंख्याता स्थान को अकेला लाभता है । फिर कपायकुशील प्रतिसेवना कुशील भोर बंकुश एक साथ में असंख्याता स्थानों को लाभता है फिर बकुश विच्छेद पाता है, फिर असंख्याता स्थानों पर जाने पर प्रतिसेवना कुशील विच्छेद पाता है, फिर असंख्यात स्थानों पर जाने पर कषायकुशील विच्छेद पाता है । यहाँ से ऊपर अकषाय स्थान है वहाँ निर्ग्रन्थ ही जाता है । वह भी असंख्याता स्थानों पर जाने पर विच्छेद पाता है इससे ऊपर एक ही स्थान पर जाकर निर्मन्थ स्नातक निर्वाण पाटा है । इसकी संयम लब्धि अनन्तानन्त गुणी होती है ।
॥ इति नवमोऽध्यायः ॥
॥ अथ दशमोऽध्यायः ॥
(१) मोहदयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम् ।
मोहनीय का क्षय होने से और ज्ञान दर्शनावरण के तथा अन्तराय के क्षय से केवल ज्ञान उत्पन्न होता है ।