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हृदय में चावल .या जौ के दाने जितना बताया गया है। आचार्य रामानुज के अनुसार अणु परिमाण वाली आत्मा अपने ज्ञान गुण के द्वारा सम्पूर्ण शरीर में होने वाली सुख-दुःख आदि संवेदन रूप क्रिया का अनुभव करती है। जिस प्रकार दीपक की लौ छोटी होते हुए भी स्व-पर समस्त पदार्थों को प्रकाशित करती है, उसी प्रकार आत्मा अणुरूप होते हुए भी ज्ञान गुण के द्वारा शरीर में होने वाली समस्त क्रियाओं को जान लेती है। अतः आत्मा अणुरूप है। 2. आत्मा का विभु (सर्वव्यापी) परिमाण
अद्वैत वेदान्त, न्याय-वैशेषिक, सांख्य-योग आदि दार्शनिक आत्मा को आकाश की भांति सर्वव्यापक मानते हैं। उनका मानना है यदि आत्मा को सर्वव्यापक नहीं मानेंगे तो परमाणु जो कि पूरे आकाश में फैले हुए हैं, उन परमाणुओं के साथ आत्मा का संयोग न हो सकने के कारण शरीर का ही निर्माण नहीं हो सकेगा और . शरीर के अभाव में संसार का ही अभाव हो जायेगा। दूसरी बात आत्मा को शरीर परिमाण मानने पर शरीर के नाश के साथ ही आत्मा के नाश होने का प्रसंग भी उपस्थित हो जायेगा। आत्मा आकाश की तरह एक अमूर्त द्रव्य है। आकाश सर्वव्यापी है अतः आत्मा भी आकाश की तरह सर्वव्यापी है। 3. आत्मा का शरीर परिमाण - जैन दर्शन आत्मा को अणु अथवा सर्वव्यापी न मानकर मध्यम परिमाण अर्थात् शरीर परिमाण स्वीकार करता है। उनके अनुसार यदि आत्मा को अणु परिमाण माना जायेगा तो शरीर के जिस भाग में आत्मा रहेगी, उसी भाग में होने वाली सुख-दुःख आदि संवेदना का वह अनुभव कर सकेगी। सम्पूर्ण शरीर में होने वाली संवेदनाओं का उसे अनुभव नहीं हो सकेगा, इसलिए आत्मा को अणुरूप मानना ठीक नहीं है।