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4. पुनर्जन्म का सद्भाव
आत्मा के त्रैकालिक अस्तित्व का एक हेतु है - पुनर्जन्म का सद्भाव। राग और द्वेष- ये दो कर्मबीज हैं, जिनके कारण आत्मा बार-बार इस संसार में परिभ्रमण करती रहती है, उसका बार-बार जन्म-मरण होता रहता है। पुनर्जन्म का सद्भाव शरीर के प्रति होने वाले चैतसिक आग्रह से भी सिद्ध होता है। नवजात शिशु में भी अपने शरीर के प्रति विशेष प्रकार का लगाव होता है। उसकी हर्ष, भय, शोक, मां का स्तनपान आदि क्रियाएँ पुनर्जन्म के सिद्धान्त को सिद्ध करती हैं, क्योंकि उसने इस जन्म में तो हर्षादि का अनुभव किया ही नहीं है। ये क्रियाएँ पूर्वाभ्यास से ही संभव हैं। अतः इससे पुनर्जन्म की सिद्धि होती हैं। पुनर्जन्म की अवधारणा से आत्मा के त्रैकालिक अस्तित्व की सिद्धि होती है।
5. जन्मजात विलक्षण प्रतिभा
जन्मजात विलक्षण प्रतिभा से भी पुनर्जन्म की सिद्धि होती है। जैन दर्शन में ज्ञान को आत्मा का गुण माना गया है। मरने के बाद भी ज्ञान एक जन्म से दूसरे जन्म में साथ जाता है। इसीलिए हम देखते हैं कि कुछ बच्चे जन्म से ही बहुत प्रतिभा सम्पन्न होते हैं, तो कुछ बच्चे मंदबुद्धि वाले या अज्ञानी । इसका कारण भी उसका पूर्वजन्म में किया गया ज्ञान का अभ्यासे या अनभ्यास ही है। 6. शरीर का अधिष्ठाता
शरीर के अधिष्ठाता के रूप में आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध करते हुए कहा जाता है कि जितनी भी क्रियाएँ होती हैं, वे प्रयत्नपूर्वक होती है। उदाहरणार्थ रथ के चलने की क्रिया सारथी के प्रयत्न से होती है, उसी प्रकार शरीर के संचालन की क्रिया, जिसके प्रयत्न से होती है, वही आत्मा है।