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दोनों प्रकार के परिग्रह को छोड़ना त्याग धर्म है। बाह्य विषयों और पदार्थों का त्याग द्रव्य त्याग है तथा उन विषयों और पदार्थों के प्रति होने वाली आसक्ति, मूर्छा का त्याग भाव त्याग है। त्याग धर्म के द्वारा ही आत्मा में वैराग्य बढ़ता है। त्याग ही संयम का मूल आधार है। 10. ब्रह्मचर्य
ब्रह्म शब्द आत्मा का वाचक है। आत्मा में विचरण करना ही ब्रह्मचर्य धर्म है। यह आध्यात्मिक अनुभूति का प्रथम सोपान है। मानव के भीतर स्थित सुप्त शक्तियों को जागृत करने का सफल उपाय है। कामभोग के त्याग को ब्रह्मचर्य कहा जाता है। अब्रह्मचर्य को किंपाकफल की उपमा से उपमित किया गया है। जिस प्रकार किंपाक का फल खाने में अच्छा लगता है किन्तु उसका परिणाम अच्छा नहीं होता। उसी प्रकार कामभोग भोगते समय अच्छे लगते हैं किन्तु उसका परिणाम अच्छा नहीं होता है।
जब इन्द्रियों का प्रवाह अन्तर्मुखी बनता है तब ब्रह्मचर्य की साधना होती है। इन्द्रियों का अपनी विषयों की ओर प्रवाहित होना अब्रह्मचर्य है तथा इन्द्रियों को आत्म-स्वरूप में लीन करना ब्रह्मचर्य धर्म है।
___ इस प्रकार क्षमा, मुक्ति, आर्जव, मार्दव आदि श्रमण के दस धर्म बताये गये हैं, पर इनका आचरण केवल श्रमण के लिए ही नहीं, प्रत्येक व्यक्ति के लिए यथाशक्य आचरणीय है।
__ प्रश्नावली प्रश्न-1. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर विस्तार से लिखें1. जैन आचार के आधार और स्वरूप को बताते हुए उसकी
विशेषताओं पर प्रकाश डालें।