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सत्य बोलना साधक का जीवन-व्रत हैं। जब यह जीवन व्रत जीवन के कण-कण में रम जाता है तो वह सत्य धर्म हो जाता है।
7. संयम
सम- सम्यक् और यम-नियंत्रण को कहते हैं। सम्यक् प्रकार से इन्द्रिय, मन आदि का नियंत्रण करना संयम है। पांच महाव्रतों को धारण करना, पांच समितियों का पालन करना, चार कषायों का निग्रह करना तथा पांच इन्द्रियों के जीतने को संयम कहा गया है। संयम ही मुक्ति का साक्षात् कारण है। संयम के महत्त्व को बताते हुए लिखा गया कि जो मुनि संयम में रत है वह देवलोक के सुखों का भी अतिक्रमण कर देता है। संयम की साधना से मानसिक और भौतिक दोनों प्रकार की समस्याओं को समाधान मिलता है।
स्थानांग सूत्र में मन संयम, वचन संयम, काय संयम और उपकरण संयम – ये चार प्रकार के संयम बताये गए हैं। सतरह प्रकार के संयम का भी उल्लेख मिलता है।
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8. तप
कर्म-ग्रंथियों को तपाने वाला अनुष्ठान तप धर्म है। तप के दो भेद किये गए हैं - बाह्य तप और आभ्यन्तर तप ।
बाह्य तप -अनशन, ऊनोदरी, भिक्षाचरी, रसपरित्याग, कायक्लेश और प्रतिसंलीनता – ये छः बाह्य तप हैं।
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आभ्यन्तर तप – प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग- ये छः आभ्यन्तर तप हैं। इनका विस्तृत विवेचन निर्जरा तत्त्व के अन्तर्गत किया गया है।
9. त्याग
आत्मा के शुद्ध स्वरूप को ग्रहण करके बाह्य तथा आभ्यन्तर