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जीव और अजीव के अन्य भेद करने पर द्रव्य के छः भेद भी हो जाते हैं। वे हैं-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, काल, पुद्गलास्तिकाय और जीवास्तिकाय। इनमें जीवास्तिकाय जीव विभाग में तथा शेष पांच अजीव विभाग के अन्तर्गत आते हैं। इन छः द्रव्यों की व्याख्या जागतिक सन्दर्भ में की जाती है। आत्मिक विकास की दृष्टि से भी जीव और अजीव-इन दो द्रव्यों को विस्तृत कर नौ द्रव्य या तत्त्व स्वीकार किये गए हैं। वे हैं-जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष। छः द्रव्यों और नौ तत्त्वों का विस्तृत विवेचन आगे किया जाएगा।
__2. द्रव्य-गुण-पर्याय प्रायः सभी भारतीय दार्शनिकों ने 'द्रव्य' को अपने चिंतन के केन्द्र में रखा है। 'द्रव्य चिंतन' तत्त्व मीमांसा का प्रमुख विषय है। जैन दर्शन में सत् की अवधारणा आगमकालीन है। जैन आगमों में सत् के लिए द्रव्य शब्द का प्रयोग हुआ है। 1. द्रव्य-व्युत्पत्ति एवं परिभाषा
द्रव्य शब्द द्रु धातु से कर्मार्थक य प्रत्यय से निष्पन्न है। इसका अर्थ है-प्राप्ति योग्य। द्रव्य का व्युत्पत्तिपरक अर्थ करते हुए कहा गया है कि-'अद्रुवत्द्रवतिद्रोष्यतितांस्तानपर्यायानिति द्रव्यम्' अर्थात् द्रव्य वह है, जो भिन्न-भिन्न अवस्थाओं को प्राप्त हुआ, हो रहा है और होगा। जैन साहित्य में द्रव्य की परिभाषा अनेक दृष्टिकोणों से की गई है। * गुणसमुदायरूप द्रव्य
विश्व व्यवस्था के सन्दर्भ में द्रव्य की प्रथम परिभाषा उत्तराध्ययनसूत्र में मिलती है। गुणाणामासवो दव्वं वहां गुणों के आश्रय को द्रव्य कहा गया है। बाद में कुछ जैनाचार्यों ने इसी परिभाषा का अनुसरण करते हुए गुणसमुदाय को द्रव्य माना है।