________________
98
स्वाध्याय है। यह आत्मलीनता की स्थिति में ही हो सकता है। अध्येता को आत्मा से हटाकर पदार्थ जगत् की ओर धकेलने वाला अध्ययन स्वाध्याय की कोटि में नहीं आ सकता। स्वाध्याय के पांच प्रकार हैं
1. वाचना-शास्त्रों को पढ़ना, पढ़ाना। 2. पृच्छना-शंका निवारण के लिए प्रश्न करना। 3. परिवर्तना-सीखे हुए ज्ञान का पुनरावर्तन करना। 4. अनुप्रेक्षा- अर्थ का चिन्तन करना।
5. धर्मकथा-धर्मकथा करना। 11. ध्यान
मन की एकाग्र अवस्था का नाम ध्यान है। ध्यान प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों प्रकार का होता है। आर्त्तध्यान और रौद्रध्यान अप्रशस्त ध्यान है। धर्मध्यान और शुक्लध्यान प्रशस्त ध्यान है। शुभ और पवित्र आलम्बन पर एकाग्र होना प्रशस्त ध्यान है। अशुभ और अपवित्र आलम्बन पर एकाग्र होना अप्रशस्त ध्यान है।
जिस प्रकार रुई को धुनने से उसके तार-तार बिखर जाते हैं। रुई की सघनता मिट जाती है। उन तारों में बल एवं मल नहीं रहता। उसी प्रकार ध्यान साधना के द्वारा सघन कर्म खंड-खंड होकर बिखर जाते हैं। कर्मों की सघनता मिट जाती है। आत्मा निर्मल और पवित्र बनती है। 12. व्युत्सर्ग-कायोत्सर्ग
__ व्युत्सर्ग में दो शब्द हैं-वि और उत्सर्ग। वि का अर्थ है विशिष्ट और उत्सर्ग का अर्थ है-त्याग, छोड़ना। त्याग करने की विशिष्ट विधि व्युत्सर्ग है। यह त्याग अपने शरीर का हो सकता है, वस्त्र, पात्र आदि उपकरणों का भी हो सकता है और भोजन