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चित्त। प्रायः का अर्थ है-पाप और चित्त का अर्थ है उस पाप का विशोधन करना अर्थात् पाप को शुद्ध करने की क्रिया. का नाम प्रायश्चित्त है। इस प्रकार दोषों से मुक्त होने की, आत्मशुद्धि की प्रक्रिया को प्रायश्चित्त कहा गया है। 8. विनय
विनय की व्युत्पत्ति करते हुए कहा गया है-'विनीयते अष्टप्रकारं कर्मानेनेति विनयः' जिससे आठ प्रकार के कर्म दूर किये जाते हैं, वह विनय है। इसका प्रवृत्तिजन्य अर्थ है-गुणीजनों
और श्रेष्ठजनों के प्रति यथोचित सम्मानपूर्ण व्यवहार करना, उनको हाथ जोड़ना, उनके आने पर खड़ा होना, आसन देना आदि। इस प्रकार विनय. के दो अर्थ हैं-कर्मों का अपनयन करना और गुणीजनों, बड़ों का बहुमान करना, उनकी आशातना न करना। आशातना अर्थात् असद् व्यवहार। आशातना का अभाव और बहुमान का भाव, यह विनय की परिभाषा है। इससे ज्ञान, दर्शन और चारित्र की विशेष निर्मलता होती है तथा मन, वचन और काया की पवित्रता सधती
१. वैयावृत्त्य
वैयावृत्त्य का सीधा-सा अर्थ है-सेवा करना। सहयोग की भावना से सेवा-कार्य में जुड़ना वैयावृत्त्य तप कहलाता है। इस तप की आराधना करने वाला आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, रोगी, नवदीक्षित आदि की अपेक्षाओं को समझकर सेवाभावना की प्रेरणा से उनका सहयोगी बनता है। पूर्ण आत्मार्थी भाव का विकास होने पर ही वैयावृत्त्य किया जा सकता है। 10. स्वाध्याय . सद्शास्त्रों के अध्ययन का नाम स्वाध्याय है। इसका दूसरा अर्थ है-स्व का अध्ययन करना अर्थात् आत्मचिंतन-मनन करना