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૨રૂક
उपा० यशोविजयकृत प्रेम्णां यस्य च सद्म पद्मविजयो जातः सुधीः सोदरः सोयं न्यायविशारदः स्म तनुते काञ्चिन्नयप्रक्रियाम् ॥१॥ ग्रन्थे दपणदर्शने निविशते दुर्मेधसां वासना,
___भावाभिज्ञतया मुदं तु दधते ये केऽपि तेभ्यो नमः । पद से सूचित किया है। अपने लाक्षात गुरु "नयविजयजी” महाराज उस काल में विद्यमान थे इस बात को "भ्राजन्ते" इस वर्तमानकालिक प्रयोग से सूचित किया है । गुरुदेव "जीतविजयजी" के लिए "प्राज्ञ" तथा "कृष्टाशय' ये दो विशेषण लगाए गये हैं। प्रथम विशेषण से स्वसिद्धान्त और परसिद्धान्तों के रहस्यों को जाननेवाले "जीतविजयजी" थे, ऐसा सूचित होता है । “प्रकृष्टः आशयो यस्य" इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिन का आशय अर्थात् चित्त प्रकृष्ट अर्थात् उदार था ऐसे "जीतविजयजी" थे ऐसा द्वितीय विशेषण से सूचित होता है। उदारचिनवाले गुरु रहस्यवस्तु को भी अपने शिष्य से छिपाकर नहीं रखते हैं, ऐसे गुरुओं का स्वभाव ही ऐसा होता है कि योग्य शिष्य के लिए रहस्यवस्तुओं का भी उपदेश कर ही देते हैं। इस से उपाध्यायजी को भी "सकल सिद्धान्त रहस्य की प्राप्ति" सूचित होती है । द्वितीय साक्षात् गुरु "नयविजयजी” थे जिन से ग्रन्थकर्ता को दीक्षा और विद्या दोनों की प्राप्ति हुई थी और जो "जीतविययजी" के सतीय थे, उन के लिए "सनया" ऐसा विशेषण इस में प्रयुक्त है, “देहलीदीपक" न्याय से प्रकृष्टाशय यह विशेषण भी नयविजयजी में लगता है । “सनय" इस विशेषण से "नयविजयजी'' में दीतिकुशलता की सूचना मिलती है । इस के बाद इस पद्य में “पद्मविजयजी" का उल्लेख आता है, उन के लिए प्रेमसमयह विशेषण दिया गया है, इस से यह सूचित होता है कि “पद्मविजयजी' ग्रन्थकार के लघुभ्राता थे, इन के लिए “सुधीः सोदर" ये और भी दो विशेषण प्रयुक्त है, जिस से सूचित होता है कि "पद्मविजयजी" ग्रन्थकार के पूर्वाश्रम के सोदर माता थे और पूर्ण बुद्धिमान थे। उस के बाद ग्रन्थकार ने अपने लिए "न्यायविशारदः” ऐसा विशेषण प्रयुक्त किया है, इस से यह सूचित होता है कि ये अनन्याय से इतर बौद्धन्याय, गौतमीय. न्याय आदि सभा न्यायशास्त्रों में वे पूर्णकुशल थे क्योंकि इस में 'न्याय' यह सामान्य वाचक शब्द ही प्रयुक्त है, अत: "प्राज्ञकृष्टाशय नीतिकुशल गुरु से विद्या प्राप्त कर के विशिष्टबुद्धिवाले स्वलघुभ्राता" पद्मविजयजी के साथ सहवास के द्वारा प्राप्त विद्याओं को दृढ कर के "न्यायविशारद उपाध्यायजी" ने इस ग्रन्थ का निर्माण किया है, इसलिए "नयरहस्य प्रकरण” उपादेय सिद्ध होता है “गुरवः” इस बहुबचन प्रयोग से ग्रन्थकार अपने गुरुओं के प्रति सम्मान को प्रगट करते हैं, जिस से गुरुस्तुति सूचित होती है ॥१॥
ग्रन्थ के आदि या अन्त में दुर्जननिन्दा और सज्जनप्रशंसा का उल्लेख करना यह भी ग्रन्थकारों की प्रक्रिया प्रसिद्ध है. परन्तु प्रस्तुत ग्रन्थकार जैनमुनि होने के कारण किसी की भी निन्दा करना उचित नहीं समझते हैं, दुर्जनों के प्रति उपेक्षा रखना ही ये अपना कर्त्तव्य मानते हैं, इसलिए प्रस्तुत पद्य में दुर्जन के लिए उपेक्षा का ही द्योतन किया