________________
रचनाशली
मोक्षाकर ने अपने तर्कभाषा को तीन परिच्छेदों में विभक्त किया है। प्रस्तुत ग्रंथ भी 'प्रमाण, नय और निक्षेप' नामक तीन परिच्छेदों में विभक्त है । यह विभाजन भट्टारक अकलंक के लघीयस्त्रयनामक ग्रंथ का स्मरण दिलाता है। वह भी इसी प्रकार तीन प्रवेशों में विभक्त है। अकलंक को जैन तर्कशास्त्र का संस्थापक माना जाता है। यशोविजय ने उसके ग्रंथों का पर्यालोचन ही नहीं किया, किंतु 'अष्टसहस्त्री-विवरण नामक ग्रंथ भी रचा, जो अकलंककृत अष्टशती की टीका अष्टसहस्त्री का पर्यालोचन है। इससे सहज अनुमान हो सकता है कि यशोविजय के मन में अकलंक के प्रति कितनी श्रद्धा थी? लधीयस्त्रय के अतिरिक्त जैनतर्कविषयक कोई ग्रंथ नहीं है, जिसका विषय-विभाजन प्रमाण, नय और निक्षेप के रूप में मिलना हो । लघीयस्त्रय की बहुत-सी पंक्तियाँ भी जैनतर्कभाषा में ज्यों की त्यों मिलती हैं। इन सब आधारों पर कहा जा सकता है कि वही इस ग्रंथ-रचना की प्रेरणा का स्रोत है।
प्राक्तन-कृतियों का प्रभाव
'जैन-तर्कभाषा' पर नीचे लिखी रचनाओं का प्रभाव स्पष्ट जान पडता है।
१) विशेषावश्यक भाष्य-यह विशालकाय ग्रंथ आवश्यकसूत्र की टीका है. जिसे आठसौ ई. में जिन. भद्रगणि क्षमाश्रमण ने रचा। अष्टमशताब्दि तक आगमिक साहित्य का जो विकास हुआ, प्रस्तुत ग्रंथ में उसका विस्तृत प्रतिपादन मिलता है । आगमिक विषयों से संबद्ध उत्तरवर्ती समस्त रचनाएँ इसके प्रभाव को प्रकट करती हैं। विशेषावश्यक भाष्य में पाँच ज्ञान, नय और निक्षेपों का विस्तृत प्रतिपादन है।
२) प्रमाणनयतत्त्वालोक-इसे ११ वीं शताब्दि में प्रसिद्ध श्वेतांबर आचार्य वादिदेवसूरि ने रचा, जो श्वेतांबर परंपरा में प्रमाण-विषयक प्रथम सूत्रग्रंथ है। इस पर उन्हीं की 'स्याद्वादरत्नाकर' नामक विशाल टीका है जिसे जैनतर्कशास्त्र का आकर ग्रंथ कहा जायगा ।
३) कुसुमांजलि-यह प्रसिद्ध नैयायिक उदयन की रचना है । ईश्वरकर्तृत्व आदि जिन विषयों को लेकर वैदिक एवं अवैदिक परंपराओं में मुख्य भेद हैं-कुसुमांजलि में उनका विवेचन मिलता है।
४) चितामणि-यह नव्यन्याय का प्रथम ग्रंथ है, जिसे १४ वीं शताब्दि में गंगेश ने रचा । इसके साथ बार्शनिक जगत् में नयेयुग का प्रवेश हुआ।
५) न्यायदीपिका--यह दिगंबर आचार्य धर्मराज की संक्षिप्त रचना है। जो जैनदर्शन में प्रवेश करने बालों के लिए अत्यंत उपयोगी है। प्रतिपादनशैली प्रांजल एवं सारगर्भित है।
६) लघीयस्त्रय--इसका निर्देश ऊपर आचुका है।
७) तत्त्वार्थश्लोकवातिक--यह तत्त्वार्थसूत्रपर विद्यानंद की विस्तृत टीका है।
जैन तर्कभाषा में पाँच ज्ञान और चार निक्षेपों का जो वर्णन है, उसका आधार विशेषावश्यक भाष्य है । दूसरी ओर प्रमाण और नयों का प्रतिपादन स्याद्वादरत्नाकर के आधार पर है । जैन-तर्कभाषा की मुख्य विशेषता यह है कि इसमें आगमिक एवं तार्किक दोनों परंपराओं का सुन्दर समन्वय मिलता है। संक्षिप्त होने पर भी यशोविजय ने किसी तथ्य को अस्पष्ट नहीं रहने दिया।