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________________ भाषा - श्रथ । ८३ मो धूमत्राला होता है वह अग्निवाला भी होता है, जैसे रसोईघर । अथवा: - धूमवांश्चायमिति वा ॥ ४८ ॥ भाषार्थ - श्रथवा इतना और कहना कि यह भी धूमवाला है। भाषार्थ – ऊपरक सूत्रमें तीन ही अवयव कहे गये हैं और नचिके सूत्रमें उपनय मिलाकर चार अवयव दिखाये गये हैं; परन्तु कम अवयव दोनोंमें हैं; इसलिए वे दोनों ही बालप्रयोगाभास है । उल्टा प्रयोग करना भी बालप्रयोगाभास होता है :तस्मादग्निमान् धूमवांश्चायम् ॥ ४९ ॥ भाषार्थ — धूमत्राला होनेसे श्रानिवाला है, और यह भी धूमवाला है । भावार्थ — दृष्टान्त बोलकर उपनय बोलना चाहिए, कि उसी तरह वह भी धूमवाला है फिर निगमन बोलना चाहिए, कि इसी से यह श्रवश्यही अग्निवाला है । परन्तु इस सूत्रम उपनय और निगमन बिपरीतता से कहे गये हैं इसलिए यह ( सूत्र ) बालप्रयोगाभास है । इसी में हेतु देते हैं : स्पष्टतया प्रकृतप्रतिपत्तेरयोगात् ॥ ५० ॥ i भाषार्थ -- इन सब प्रयोगोंसे प्रकृत पदार्थोंका अर्थात् प्रकरणमें आए हुए पदाथाका स्पष्ट ज्ञान नहीं होता है । भावार्थ - - ऊपर के कहे हुए सब प्रयोग इसलिए झूठे हैं कि उनसे पदार्थोंका ठीक २ ज्ञान नहीं होता है । आगमाभासका स्वरूप : रागद्वेषमोहाक्रान्तपुरुषवचनाज्जातमागमाभासम् ५१ •
SR No.022447
Book TitleParikshamukh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Jain
PublisherGhanshyamdas Jain
Publication Year
Total Pages104
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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