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________________ इसलिये एक ज्ञाताकी अपेक्षासे प्रमाण और फल दोनों अभिन्न हैं । और प्रमाण तथा फल की भेदरूप प्रतीति होती है इसलिए दोनों भिन्न हैं। पांचवें परिच्छेदका सारांश । प्रमाणके फलके दो भेद हैं एक साक्षात् फल दूसरा परंम्परा फल | जिनमें अज्ञानकी निवृत्ति तो साक्षात्फल है और हान, उपादान, उपेक्षा, ये तीन परम्पराफल हैं। वे फल, प्रमाणस कथंचित् भिन्न और कथंचित् श्रभिन्न होते हैं जिसका समर्थन प्रान्तम सूत्रेस किया हुआ है। भावार्थ — हान नाम छोड़नेका, उपादान नाम ग्रहण करनेका ' और उपेक्षा नाम मध्यस्थभावका है । इसप्रकार पांचवां परिच्छेद समाप्त हुआ । इति पंचमः परिच्छेदः । अब आभासका वर्णन करते हैं: ततेाऽन्यत्तदाभासम् ॥ १ ॥ भाषार्थ — ऊपर कहे हुए प्रमाणके स्वरूप, संख्या, विषय तथा फलसे विपरीत ( उल्टे ) प्रमाणस्वरूप श्रादिकोंको स्वरूपणभास, संख्षाभास विषयाभास, और फलाभास कहतें हैं । स्वरूपाभासों की परिगणनाः अस्वसंविदितगृहीतार्थदर्शनसंशयाद्यः प्रमा णाभासाः ॥ २ ॥ भाषार्थ — स्वसंविदित, गृहीतार्थ, दर्शन तथा संशय, विपयेय और अनध्यवसाय, इन ज्ञानोंको प्रमाणाभास कहते हैं ।
SR No.022447
Book TitleParikshamukh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Jain
PublisherGhanshyamdas Jain
Publication Year
Total Pages104
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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