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________________ के दो २ भेद है, जिनका पूर्वमें ही विस्तारसे वर्णन कर चुके हैं । इसप्रकार विषय-परिच्छेद समाप्त हुश्रा । इति चतुर्यः परिच्छेदः । अब प्रमाणके फलका निर्णय करते हैं:अज्ञाननिवृत्तिानोपादानोपेक्षाश्चफलम्॥१॥ भाषार्थ-प्रमाणका साक्षात्फल, अज्ञानकी निवृत्ति है तथा परम्पराफल, हान, उपादान और उपेक्षा है। भावार्थ-प्रमाण द्वारा पहले अज्ञानकी निवृत्ति (नुदाई) होती है बादमें किसी वस्तुका त्याग अथवा ग्रहण होता है अथवा उसमें उपेक्षारूप मध्यस्थभाव होजाता है इसलिये इन तीनोंको परम्परा फल कहत हैं और अज्ञानकी निवृत्तिको साक्षातूफल कहते हैं ! उस फलकी व्यवस्था:प्रमाणादाभिन्न भिन्नं च ॥२॥ भाषार्थ-वह फल, प्रमाणसे कथंचित् भिन्न तथा कथंचित् अभिन्न होता है। उनमेंसे अभिन्नपक्षका समर्थन करते हैं: यः प्रमिमीते स एव निवृत्ताज्ञानो जहात्यादत्त उपेक्षते चेति प्रतीतः ॥३॥ भाषार्थ-जो जानताहै उसीका अज्ञान दूर होता है वही किसी वस्तुको छोड़ता अथवा ग्रहण करता है अथवा मध्यस्थ होजाता है
SR No.022447
Book TitleParikshamukh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Jain
PublisherGhanshyamdas Jain
Publication Year
Total Pages104
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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