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________________ ७९ दृष्टान्तकी अपेक्षासे पक्ष और हेतुके उपसंहार करनेवाले वचनको उपनय कहते हैं जैसे कि-यह भी उसीतरह धूमवान् है । हेतुपूर्वक पक्षके दिखानेको निगमन कहते हैं, जैसे कि- . इसलिये यह अग्निमान् है । ये परार्थानुमानप्रयोगके पांच अवयव हैं। इनमेंसे एकके भी न होनेपर वीतरागकथा हो या विजिगीषुकथा हो कहीं भी अनुमान नहीं हो सकता।" यह नैयायिकोंका मन्तव्य है । परन्तुः तदेतदविमृश्याभिमननम् । वीतरागकथायां तु प्रतिपाद्याशयानुरोधेनावयवाधिक्येऽपि विजिगीषुकथायां प्रतिज्ञाहेतुरूपावयवद्वयेनैव पर्याप्तः किमप्रयोजनैरन्यैरवयवैः। यह उनका अविचारपूर्वक मानना है; क्योंकि वीतरागकथामें शिष्यके आशयके अनुसार यद्यपि अधिक अवयव माने जा सकते हैं, तथापि विजिगीषुकथामें प्रतिज्ञा और हेतु इन दो ही अवयवोंसे जब काम चल सकता है तब निष्प्रयोजन अधिक अवयव माननेकी क्या आवश्यकता है ? तथा हि, वादिप्रतिवादिनोः खमतस्थापनार्थ जयपराजयपर्यन्तं परस्परं प्रवर्तमानो वाग्व्यापारो विजिगीषुकथा । गुरुशिष्याणां विशिष्टविदुषां वा रागद्वेषरहितानां तत्वनिर्णयपर्यन्तं परस्परं प्रवर्तमानो वाग्व्यापारो वीतरागकथा । तत्र विजिगीषुकथा वाद इति चोच्यते । केचिद्वीतरागकथा वाद इति कथयन्ति तत्पारिभाषिकमेव । नहि लोके गुरुशिष्यादिवाग्व्यापारे वादव्यवहारः, विजिगीषुवाग्व्यवहार एव वादत्वप्रसिद्धः। यथा स्वामिसमन्तभद्राचार्यैः सर्वे सर्वथैकान्तवादिनो वादे जिता इति ।। . वादी और प्रतिवादीमें, अपने अपने मतके स्थापन करनेके
SR No.022438
Book TitleNyaya Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1913
Total Pages146
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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