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________________ १३२ द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षासे वस्तु कथंचित् एक ही है अनेक नहीं। पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षासे वस्तु अनेक ही है एक नहीं । इसीलिये आचार्य समन्तभद्रस्वामीने ऐसा कहा है कि, "प्रमाण और नयकी अपेक्षासे अनेकान्त भी अनेकान्तरूप है अर्थात् कहीं अनेकान्त है और कहीं एकान्त है । जहां प्रमाणकी अपेक्षा है वहां अनेकान्त है; क्योंकि वह अनियत सब धर्मोंसे संयुक्त अभेद वस्तुको विषय करता है । जहां नयकी अपेक्षा है वहां पर एकान्त है; क्योंकि वह नियत एक धर्मसे युक्त वस्तुको विषय करता है"। यदि इस जिनोक्त मार्गका उल्लङ्घन करके तुमको यही आग्रह है कि 'सर्वथा एक अद्वितीय ब्रह्म ही है और इसके सिवा भिन्न कुछ नहीं है और किसी प्रकार भी नहीं हो सकता' तो यह तुम्हारा अर्थाभास है और इसके प्रतिपादक वचन आगमाभास हैं। क्योंकि प्रत्यक्षसे तथा “सत्यं भिदा तत्वं भिदा" अर्थात् यह भेद सत्य है और वास्तविक है इस आगमके वचनसे पूर्वोक्त कथन बाधित होता है । सर्वथा भेद एव न कथञ्चिदप्यभेद इत्यत्राप्येवमेव विज्ञेयं, सद्रूपेणापि भेदेऽसतः अर्थक्रियाकारित्वासम्भवात् । ननु प्रतिनियताभिप्रायगोचरतया पृथगात्मनां परस्परसाहचर्यानपेक्षायां मिथ्याभूतानामेकत्वादीनां धर्माणां साहचर्यलक्षणसमुदायोऽपि मिथ्यैवेति चेत्तदङ्गीकुर्महे, परस्परोपकार्योपकारकभावं विना स्वतन्त्रतया नैरपेक्ष्यापेक्षायां पटस्वभावविमुक्तस्य तन्तुसमूहस्य शीतनिवारणाद्यर्थक्रियावदेकत्वानेकत्वानामर्थक्रियायां सामर्थ्याभावात्कथञ्चिन्मिथ्यात्वस्यापि सम्भवात् । यदि सर्वथा भेद ही माना जाय और किसी भी अपेक्षासे अभेद न माना जाय तो भी यही दोष आवेगा, क्योंकि सर्वथा भेद माननेसे सद्रूपके साथ भी भेद ठहरा और ऐसा होनेसे
SR No.022438
Book TitleNyaya Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1913
Total Pages146
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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