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________________ १२६ रूप मिट्टी में पिण्डाकार मिट्टीका जिस समय व्यय होता है, उसी समय घटाकार मिट्टीका उत्पाद, और मिट्टीके स्वरूपका ध्रौव्य है। इससे अजीवद्रव्योंमें भी उत्पादादिक तीनों सिद्ध होते हैं । स्वामी समन्तभद्राचार्यके इष्ट मतका अनुसरण करनेवाला वामनाचार्य भी यही कहता है कि सदुपदेशसे पूर्वके अज्ञानस्वभावको दूर करनेके लिये तथा आगे वस्तुके आपेक्षिक ज्ञानस्वरूप नयोंको ग्रहण करनेके लिये जो आत्मा समर्थ है, वही शास्त्रका अधिकारी है। उनके यहांका यह सूत्र है कि “न शास्त्रमसद्रव्येष्वर्थवत्"। अर्थात् जो आत्मद्रव्य अज्ञानको दूर करने और नयात्मक ज्ञानके उपार्जनमें समर्थ नहीं है, उसमें शास्त्रका कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। इससे अनेकान्तात्मक वस्तु ही यथार्थ वस्तु है यह सिद्ध होता है; क्योंकि, अनेकान्तात्मक वस्तु ही प्रमाणवाक्यसे कहा जा सकता है । अनुमान भी इस प्रकार हो सकता है कि सम्पूर्ण वस्तु अनेकान्तस्वरूप हैं, क्योंकि वे सत्स्वरूप हैं । जो अनेकान्तस्वरूप नहीं है वे सत्स्वरूप भी नहीं है, जैसे आकाशका कमलपुष्प । ननु यद्यप्यरविन्दं गगने नास्त्येव तथापि सरस्सस्तीति ततो न सत्त्वहेतुव्यावृत्तिश्चेत्तर्हि तदेतदरविन्दमधिकरणविशेपापेक्षया सदसदात्मकमनेकान्तमित्यन्वयदृष्टान्तत्वं भवतैव प्रतिपादितमिति सन्तोष्टव्यमायुष्मता । उदाहृतवाक्येनापि सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणां मोक्षकारणत्वमेव न संसारकारणत्वमिति विषयविभागेन कारणाकारणात्मकत्वं प्रतिपद्यते । सर्व वाक्यं सावधारणमिति न्यायात् । एवं प्रमाणसिद्धमनेकान्तात्मकं वस्तु । (शङ्का) यद्यपि कमल आकाशमें नहीं है तथापि सरोवरमें तो है । इसलिये कमलमें सत्व हेतुका जो अभी ऊपर निषेध किया
SR No.022438
Book TitleNyaya Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1913
Total Pages146
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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