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________________ १२५ एकरूप हो उसमें कोई विशेष निमित्त मिलनेसे भी क्या विकार हो सकता है, और यदि निमित्त मिलनेपर कुछ फेर. फार किसी वस्तुमें हो जाय तो वह सर्वथा एकरूप कैसा? इसी प्रकार यदि मनुष्यखभाव और देवस्वभावको सर्वथा भिन्न ही माना जायगा तो भी यह दोष स्पष्ट है कि पुण्य संपा. दनकर्ता अन्य हुआ और फलभोक्ता अन्य; क्योंकि पुण्यका उपार्जन करनेवाला है मनुष्यपर्यायपरिणत जीव और फलभोगनेवाला है देवरूपजीव । ऐसा माननेसे भी पुण्यका सम्पादन करना व्यर्थ ही है । यदि पुण्य संपादन करना दानादिकी तरह केवल परोपकारार्थ ही माना जाय सो भी ठीक नहीं, क्योंकि, जो लोग परोपकार करने में प्रवृत्त होते हैं वे भी अपने पुण्यबन्धरूप स्वार्थके लिये ही प्रवृत्त होते हैं । इस लिये जीवद्रव्यकी अपेक्षा अभेद है, किन्तु मनुष्यपर्याय और देवपर्यायकी अपेक्षा भेद मानना ही चाहिये, क्योंकि जिनमेंसे प्रतिनियत द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयोंके द्वारा विरोधादिक दोष दूर हो गये हैं ऐसे भेदाभेद प्रमाण ही हैं। तथैवाजीवद्रव्यस्य मृद्रव्यस्यापि मृदः पिण्डाकारस्य व्ययः, पृथुबुध्नोदराकारस्योत्पादः, मृद्रूपस्य ध्रुवत्वमिति, सिद्धमुत्पादादियुक्तत्वमजीवस्य । स्वामिसमन्तभद्राचार्याभिमतमतानुसारी वामनोपि सदुपदेशात्माक्तनमज्ञानस्वभावं हन्तुमुपरितननयमर्थज्ञानखभावं स्वीकर्तुं च यः समर्थ आत्मा स एव शास्त्राधिकारीत्याह "न शास्त्रमसद्रव्येष्वर्थवत्" इति । तदेवमनेकान्तात्मकं वस्तु प्रमाणवाक्यविषयत्वादथेत्वेनावतिष्ठते । तथा च प्रयोगः, सर्वमनेकान्तात्मकं, सत्त्वात्, यदुक्तसाध्यं न तन्नोक्तसाधनं यथा गगनारविन्दमिति । इसी प्रकार अजीव द्रव्यमें भी समझलेना चाहिये, जैसे मिट्टी
SR No.022438
Book TitleNyaya Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1913
Total Pages146
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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