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________________ धित विषयत्व भी है; क्योंकि गर्भस्थित मैत्रपुत्रकी श्यामता किसी प्रमाणसे भी बाधित नहीं है । विरोधी समानबलवाले किसी भी प्रमाणके न होनेसे असत्प्रतिपक्षत्व भी है । इस प्रकार इस मैत्रतनयत्व हेतुमें पाश्चरूप्यसम्पत्ति है, त्रैरूप्य तो हजारमें सौके न्यायसे (बहुतमें थोडेका अन्तर्भाव हो जाना, जैसे हजारमें सौका) सुतरां ही सिद्ध है। ननु च न पाश्चरूप्यमानं हेतोलेक्षणम् । किं तर्हि? अन्यथानुपपत्त्युपलक्षणमिति चेतर्हि सैवैकान्तलक्षणमस्तु । तदभावे पाश्वरूप्यसम्पत्तावपि मैत्रतनयत्वादौ न हेतुत्वम् । तत्सद्भावे पाश्वरूप्याभावेऽपि कृत्तिकोदयादौ हेतुत्वमिति । तदुक्तम् "अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् । नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ॥१॥" इति बौद्धान प्रति। यौगान् प्रति तु "अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र किं तत्र पञ्चभिः। नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र किं तत्र पञ्चभिः॥१॥" इति । 'केवल पाश्चरूप्य ही हेतुका लक्षण नहीं है। तो क्या? अन्य. थानुपपत्तिके साथ साथ पाश्चरूप्य होना हेतुका लक्षण है' यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि जब अन्यथानुपपत्तिको मान लिया तो केवल उसीको लक्षण मानना चाहिये; क्योंकि पाश्चरूप्यके रहनेपर भी केवल उसीके न रहनेसे मैत्रतनयत्व, हेतु नहीं रहता और उस (अन्यथानुपपत्ति) के रहनेपर पाञ्चरूप्य या त्रैरूप्यके न रहते हुए भी कृत्तिकोदय हेतु सच्चा हेतु माना जाता है । अत एव बौद्धोंके लिये ऐसा कहा है कि "जहांपर अन्यथानुपपत्ति है वहां त्रैरूप्य क्यों मानना चाहिये? और जहां अन्यथानुपपत्ति नहीं है वहां त्रैरूप्य माननेसे भी क्या फल ?" इसी प्रकार यौगोंके प्रति भी कहा है कि "जहांपर अन्यथानुपपत्ति है वहां पाश्चरूप्यसे क्या फल ? और जहां अन्यथानुपपत्ति नहीं है वहां भी पाश्चरूप्यसे क्या फल ?"
SR No.022438
Book TitleNyaya Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1913
Total Pages146
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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