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प्रमाण-नय-तत्त्वालोक]
(२२)
अन्यथा प्रमेयानवगतिप्रसङ्गः ॥१॥
न खलु अदृष्टमवगृह्यते, न चाऽनवगृहीतं संदिह्यते, न चासंदिग्धमीह्यते, न चानीहितमवेयते,नाप्यनवतंधार्यते॥१६॥
अर्थ-अवग्रह आदि का क्रम भी यही (पूर्वोक्त) है, क्योंकि इसी क्रम से ज्ञान होता है।
यदि यही क्रम न माना जाय तो प्रमेय का ज्ञान नहीं हो
सकता।
। जिसका दर्शन नहीं होता उसका अवग्रह नहीं होता, बिना अवग्रह के ईहा द्वारा पदार्थ नहीं जाना जाता, बिना ईहा हुये अवाय नहीं होता, बिना अवाय के धारणा की उत्पत्ति नहीं होती।
विवेचन-पहले दर्शन, फिर अवग्रह, फिर संदेह, फिर ईहा, फिर अवाय और तदनन्तर धारणा ज्ञान उत्पन्न होता है। यही अनुभव का क्रम है । यदि इस क्रम को स्वीकार न किया जाय तो किसी भी पदार्थ का ज्ञान होना असंभव है; क्योंकि जब तक दर्शन के द्वारा पदार्थ की सत्ता का आभास नहीं होता तब तक मनुष्यत्व आदि अवान्तर सामान्य ज्ञात नहीं होंगे, अवान्तर सामान्य के ज्ञान बिना 'यह दक्षिणी है या पश्चिमी' इस प्रकार का संदेह नहीं उत्पन्न होगा, संदेह के बिना 'यह दक्षिणी होना चाहिये' इस प्रकार का ईहा ज्ञान न होगा; इसी प्रकार अगले ज्ञानों का भी अभाव हो जायगा। अतः दर्शन, अवग्रह आदि का उक्त क्रम ही मानना युक्ति और अनुभव से संगत है।
क्वचित् क्रमस्यानुपलक्षणमेषामाशूत्पादात्, उत्पलपत्रशतव्यतिभेदक्रमवत् ॥१७॥