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. [ प्रथम परिच्छेद
अर्थ-असमस्त रूप से भी उत्पन्न होने के कारण भिन्न २ स्वभाव वाले मालूम होते हैं, वस्तु की नवीन २ पर्याय को प्रकाशित करते हैं और क्रम से उत्पन्न होते हैं, अतः अवग्रह आदि भिन्न २ हैं।
विवेचन-अवग्रह आदि का भेद सिद्ध करने के लिये यहाँ तीन हेतु बताये गये हैं:
(१) पहला हेतु-कभी सिर्फ दर्शन ही होता है, कभी दर्शन और अवग्रह-दो ही उत्पन्न होते है, इसी प्रकार कभी तीन, कभी चार ज्ञान भी उत्पन्न होते हैं। इससे प्रतीत होता है कि दर्शन, अवग्रह आदि भिन्न-भिन्न हैं । यदि यह अभिन्न होते तो एक साथ पाँचों ज्ञान उत्पन्न होते अथवा एक भी न होता।
(२) दूसरा हेतु -पदार्थ की नई-नई पर्याय को प्रकाशित करने के कारण भी दर्शन आदि भिन्न-भिन्न सिद्ध होते हैं । तात्पर्य यह है कि सर्वप्रथम दर्शन पदार्थ में रहने वाले महा सामान्य को जानता है, फिर अवग्रह अवान्तर सामान्य को जानता है, ईहा विशेष की
ओर झुकता है, अवाय विशेष का निश्चय कर देता है और धारणा में वह निश्चय अत्यन्त दृढ़ बन जाता है । इस प्रकार प्रत्येक ज्ञान नवीननवीन धर्म को जानता है और इससे उनमें भेद सिद्ध होता है।
(३) तीसरा हेतु-पहले दर्शन, फिर अवग्रह आदि इस प्रकार क्रम से ही यह ज्ञान उत्पन्न होते हैं, अतः भिन्न-भिन्न हैं। .
दर्शन-अवग्रह श्रादि का क्रम क्रमोऽप्यमीषामयमेव तथैव संवेदनात; एवंक्रमाविभतनिजकर्मक्षयोपशमजन्यत्वाच ॥१४॥