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इस अद्ध पद्यसे स्पष्ट सिद्ध है कि किसी शास्त्रकी उत्पत्तिकी आदिमें यह ग्रंथ स्तुति स्वरूप मंगलाचरण है। अब किस ग्रंथका यह मंगलाचरण है इस विषयका प्रमाण श्री धर्म भूषणजी यति महाराजकी न्यायदीपिकामें स्पष्टरूपसे भलीभांति मिलता है
'तदुक्तं स्वामिभिर्महाभाष्यस्यादावाप्तमीमांसा प्रस्तावे' सूक्ष्मांतरे त्यादि वह महाभाष्य कोंन है तथा किस ग्रंथका वह महाभाष्य है इस विषयमें उभय भाषाकवि चक्रवर्ति श्री हस्तिमल्लिजीकी विक्रान्त कौरवीय नाटककी प्रशस्ति इस प्रकार सूचित करती है
तत्वार्थसूत्रव्याख्यानगन्धहस्तिप्रवर्तकः
स्वामी समन्तभद्रोभूदेवागमनिदेशकः॥ सौ वर्ष पहलेके विद्वान् जयचंद्रजी साहबने भी इसी ग्रंथकी आदिमें सवैयाछंदद्वारा यही सूचित किया है। इन सब प्रमाणोंसे स्पष्ट सिद्ध होजाता है कि स्वामीजीने तत्वार्थसूत्रके ऊपर जो टीका गंधहस्ति नामकी रची है उसका यह ग्रंथ मंगलाचरण है। इस ग्रंथका असली महत्व तो अकलंक विद्यानंदी वसुनंदी आदि आचार्योने समझा है। हम जो कुछ समझ सकते हैं तथा समझे हैं वह पूज्य इन आचार्योंके अष्टशती अष्टसहस्री आदि टीका ग्रंथोंका ही प्रताप है। और इस विषयमें पं. जयचंद्रजी छावड़ा भी देशभाषा जानकारों के लिये विशेष उपकर्ता हैं।
विनीतरामप्रसाद जैन,
बम्बई ।।