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नयचक्रसार हि० अ०
अवक्तव्य है । स्यात्पद अस्ति, नास्ति, नित्यानित्य प्रमुख अनेकान्त संग्राहक है जैसे-अस्तिधर्म है वह नित्यरूप है. अनित्यरूप है. एकरूप है. अनेकरूप है भेदरूप है. अभेदरूप है. इत्यादि अनेकान्त प्राही है. क्योंकि वस्तुके एक गुणमें अस्तिता, नास्तिता, नित्यता, अनित्यता, भेदता, अभेदता, वक्तव्यता, अवक्तव्यता, भव्यता, अभव्यता रूप अनेकान्तपना है इसीको स्यावाद कहते हैं. इसकी सापेक्षता भास करानेके लिये स्यात् पद कहा है.
आत्मामें स्वधर्मकी अस्तिता है और परधर्मकी नास्तिता हैं. स्वगुणका परिणमन अनित्य है और वही गुण रूपसे नित्य है। द्रव्यपिंडरूपसे एक है और गुण, पर्याय रूपसे अनेक है. तथा
आत्मा कारण कार्यरूपसे प्रतिसमय नवीनता २ को प्राप्त करता है यह भवन धर्म है. तथापि मूल धर्मसे नहीं पलटता उसको अभवन धर्म कहते हैं. इत्यादि अनेक परिणति युक्त है । इसतिरह षट् द्रव्यके स्वरूपका ज्ञान प्राप्त करके हेय उपादेय रूपसे श्रद्धा, भास प्रगट हो वही सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन हैं. इसीसे जीवकी अशुद्धता अर्थात् परकर्ता, परभोक्ता, परग्राहकता दूर होती है इसी साधनसे आत्मा आत्मस्वरूपपने रहता है.
स्यात् अस्ति, स्यात्नास्ति, स्यात् अवक्तव्य रूपास्त्रयाः सकलादेशाः संपूर्ण वस्तुधर्म ग्राहकत्वात् , मूलतः अस्ति भावा अस्तित्वेन सन्ति, नास्तित्वेन न सन्ति एवं सप्त भंगा: एवं नित्यत्व सप्तभङ्गी अनित्यत्व सप्तभङ्गी एवं सामान्य धर्मार्णी, विशेष धर्मार्णी, गुणानां, पर्यायाणां प्रत्येकम् सप्तभङ्गी तद्यथा.