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नयचक्रसार हि० प्र० आत्माके ज्ञानगुण में प्रमाणपना और प्रमेयपना दोनों धर्म है. वह अपने प्रमाण का आप ही कर्ता है.
दर्शनगुणका प्रमाण ज्ञानगुण करता है क्यों कि दर्शनगुण सामान्य है. जो सावयव होता है वह विशेष ही होता है और विशेष होता है वह ज्ञानसे जाना जाता है. दर्शन है वह सामान्य धर्मग्राही है. उसको भी प्रमाण कहते हैं, परन्तु प्रमाण के जहां भेद किये हैं. वहां ज्ञान को ही ग्रहण किया है इसका कारण यह है कि दर्शन उपयोग व्यक्त-प्रगट नहीं है. इस वास्ते प्रमाण में गवेषणा नहीं की. प्रमाण के मुख्य दो भेद हैं. ( १ ) प्रत्यक्ष (२) परोक्ष " स्पष्टं प्रत्यक्ष परोक्षमन्यत् " इति स्याद्वाद रत्नाकर वाक्यात्. (५) उत्पाद, व्यय, ध्रुवत्व ये तीनों परिणाम प्रति समय प्रत्येक वस्तु में परिणमें उसको सत् कहते हैं, उस सत् भावको सतत्व स्वभाव कहते हैं (६) अनन्तभाग हानि, असंख्यातभाग हानि २, संख्यातभाग हानि ३, संख्यातगुणहानि ४, असंख्यातगुण हानि ५, अनन्तगुणहानि ६ यह छे प्रकार की हानि तथा-अनन्तभाग वृद्धि १, असंख्यातभागवृद्धि २, संख्यात भागवृद्धि३, संख्यातगुणवृद्धि४,असंख्यात्गुणवृद्धि ५,अनंतगुणवृद्धि इस तरह के प्रकार की हानि और छे प्रकारकी वृद्धि यह अगुरूलघु पर्याय की है वह सब द्रव्यों के प्रत्येक प्रदेश में परिणमती है. प्रति समय प्रति प्रदेश में पूर्वोक्त प्रकारसे न्यूनाधिक हुवा करती हैं. इसतरह बारह प्रकारकी परिणमन शक्ति को अगुरुलघुत्व स्वभाव कहते हैं. तत्त्वार्थ टीका के पांचवें अध्ययनमें. अलोकाकाश के अधिकार में