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नयचक्रसार हि० अ० और स्कंध इत्यादि कार्य भेद से भिन्नपना माने तथा. क्रमभावी पर्याय के दो भेद (१) क्रियारूप (२) अक्रियारूप इस तरह सामर्थादि गुणभेदरूप विभाग करना इस को व्यवहारनय कहते हैं. और जो परमार्थ विना द्रव्य पर्याय का विभाग करते हैं. वह न्यवहाराभासनय समझना. यथा-दृष्टान्त.
कल्पना कर के भेद विवेचन करनेवाले चार्वाक दर्शनादि वे व्यवहारनय का दुर्नय है. जैसे-जीव सप्रमाणरूप से सिद्ध है. परन्तु लोक प्रत्यक्ष दृष्टीगोचर नहीं होता इस लिये जीव नहीं एसा कहते हैं. और जगत् में पंचभूतादि वस्तु नहीं है ऐसी कल्पना करके बालजीवों को कुमार्ग में प्रवाते हैं. इस को व्यव. हारदुर्नय कहते हैं. यह व्यवहारनय का स्वरूप कहा. ।
ऋजु वर्तमानक्षणस्थायिपर्यायमात्रप्रधान्यतः सूत्रपति अभिप्रायः अजुमूत्रः । ज्ञानोपयुक्तः ज्ञानी दर्शनोपयुक्तः दर्शनी, कषायोपयुक्तः कषायी, समतोपयुक्तः सामायिकी, वर्तमाना. पलापी तदाभासः यथा तथागतमतः इति ।
अर्थ-ऋजुसूत्र नय कहते हैं. । ऋजु-सरलपने अतीत अनागत की गवेषणा नहीं करता हुवा केवल वर्तमान समय वर्ती पदार्थ के पर्याय मात्र को प्रधानरूप से माने उस को ऋजुसूत्रनय कहते है. जैसे-ज्ञानोपयोग सहित वर्ते वह ज्ञानी, दर्शनोपयोग सहित को दर्शनी, कषायपने वर्ते वह कषायि, समता उपयोग सहित वर्तने बाळे को सामायिक यह ऋजुसूत्र नय का वाक्य है.।