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संयोग वियोगादि असार है इसमें जो ज्ञानानंदीपना है वही सार है ऐसी गवेषणा करनेवाला जीव यथाप्रवृत्तिकरण कर के पूर्वकरण करता है. प्रश्नभव्य को पलटन योग्यता से परन्तु अभव्य किस योग्यता से ? उत्तरअभव्य. तीर्थंकर भक्ति में देवतावों की महिमा या लोक सन्मानादि देखकर पुन्य की वांच्छा से ग्यारह अंग बाह्य पंचमहान्नतादि को प्राप्त करता है परन्तु उस को सम्यक्त्व नहीं होता. जो पुद्गलाभिलाषी है उस को गुणस्पर्श नहीं होता. उक्तं च महाभाष्ये–अर्हदादिविभूतिशयवती दृष्ट्वा धर्मादेवंविधसत्कारो देवत्वराज्यादयः प्राप्यन्ते इत्येवं सुमुत्पन्न बुद्धैरभव्यस्यापि देवनरेन्द्रादिपदेहया निर्वाण श्रद्धारहित कष्टानुष्ठान किंचिदंगीकुर्वतो ज्ञान स्वरुपस्य श्रुतसामायिक मात्रलेभेपि सम्यक्त्वादिलाभः श्रुतस्य न भवत्येवेति ॥ इस तरह समझना .
अपूर्वकरण, अनिवृत्ति का अधिकार जैसे श्रागमसारमें लिखा है वैसे यहां भी समझ लेना. यह तीन करण करके उपशम, क्षयोपशम या क्षायिक स-म्यक्त्व को प्राप्त किया है और आत्म प्रदेशो में वर्तमान जो सम्यक्त्व दर्शन का रोधक ऐसा मिथ्यात्व मोहप्रकृति के विपाकोदय हटाने से सम्यक्त्वदर्शन गुण की प्रवृत्ति होती है इससे यथार्थपने निर्द्धार सहित जानपने प्रवृत्ते उस जीव को द्रव्याणुयोग से तत्वज्ञान प्रगट होता है उसकी रक्षा के लिये जो प्रवृत्ति उसको धर्म कर के श्रद्द है. वह स्याद्वाद परिणामी पंचास्तिकाय है. उस स्याद्वादज्ञान का स्वरुप नयज्ञानसे होता है. इस लिये नय सहित ज्ञान करना आवश्यक है. नयज्ञान का विषय गहन और अति दुर्लभ है और नय अनन्ती है. उक्तं च-जावइया वयणपहा तावइया चेव हुंति नयवाया ॥ जने पूपर सापेक्ष न हो उस को कुनय कहते हैं. और सर्व सापेक्ष वर्ते वह सुनय जिस के मुख्य सात भेद है. उनका स्वरुप यत् किंचित् लिखते हैं.
नेगमनय ज्ञानगुण का प्रवर्तन है. इस वास्ते एक द्रव्य में अनन्ते धर्म है वे सब एक समय श्रुतोपयोग में नहीं आसक्ते. क्यों कि श्रुतका उपयोग है वह असंख्य समय का है और वस्तु में अनंन्त धर्म की परिणमता एक