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________________ (१०६) नयचक्रसार हि० अ० (४) जिसका अग्रहण करने से इतर सब का ग्रहण ज्ञान हो. जैसे अजीव है इस के कहने से जीव नहीं वह अजीव परन्तु कोई जीव भी है ऐसे व्यतिरेक वचन की सिद्धी हुई. या उपयोग से जीव का ग्रहण हुवा यह व्यतिरेक संग्रह. । अर्थान्तर संग्रहनय के दो भेद कहते है (१) महा सत्ता रूप (२) अवान्तर सत्तारूप इस तरह दो भेद भी संग्रह नय के कहे हैं. “सदिति भणियम्मि जम्हा, सव्वत्थाणुप्पवभए बुद्धी । तो सव्वं तम्मतं नत्थितदत्थंतरं किंचि ॥ १॥ यद्यस्मात् सदित्येवं भणिते सर्वत्र भुवनत्रयान्तर्गतवस्तुनि बुद्धिरनुप्रवर्तते प्रधावति नहि तत् किमपि वस्तु अस्ति यत् सदित्युक्ते झगिति बुद्धौ न प्रतिभासते तस्मात् सर्वं सत्तामत्रं न पुनः अर्थान्तरं तत्, श्रुतसामर्थ्यात् यत् संग्रहेन संगृह्यते तेन परिणमनरूपत्वादेव संग्रहस्येति" अर्थात्-तीन भुवन में ऐसी कोई वस्तु नहीं है जो संग्रहनय से ग्रहण न होती हो जो वस्तु है वह सव संग्रह नय ग्राही है. यह संग्रहनय का स्वरूप कहा. संग्रहगृहीतवस्तुभेदान्तरेण विभजनं व्यवहरणं प्रवर्त्तनं वा व्यवहारः १ स द्विविधः शुद्धोऽशुद्धश्च । शुद्धो द्विविधः वस्तु गतव्यवहारः धर्मास्तिकायादिद्रव्याणां स्वस्वचलनसहकारादि जीवस्य लोकालोकादिज्ञानादिरूपः स्वसम्पूर्णपरमात्मभावसाधनरूपो गुगासाधकावस्थारूपः गुणश्रेण्यारोहादिसाधनशुद्ध: व्यवहारः । अशुद्धोपि द्विविधः सद्भूता सद्भूतभेदात् सद
SR No.022425
Book TitleNaychakra Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMeghraj Munot
PublisherRatnaprabhakar Gyanpushpmala
Publication Year1930
Total Pages164
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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