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नयस्वरूप.
(१०५) बहुत है किन्तु विशेषावश्यक से संग्रह नयके चार भेद लिखते है. और मूल पाठमें कही हुई गाथा का अर्थ है।
“ संग्रहणं " एकवचन-या-एक अध्यवसाय-उपयोग से एकसाथ ग्रहण किया जाय अथवा सामान्यरूप से सब वस्तु का ग्रहण हो उसको संग्रह कहते हैं. या सामान्यरूप से सब संग्रह करता है उसको संग्रह कहते है. या जिससे सब भेद सामान्यपने ग्रहण किया जाय उसको संग्रह कहते हैं. अथवा “ संगृहीतं पिण्डितं " जो वचन समुदाय अर्थ को ग्रहण करे उसको संग्रह कहते है. इसके चार भेद हैं. ( १ ) संगृहीत संग्रह (२) पिण्डित संग्रह (३) अनुगम संग्रह ( ४ ) व्यतिरेक संग्रह ।
(१) सामान्यरूप से जो बिनापृथक किये वस्तु को ग्रहण करे ऐसा जो उपयोग या वचन या धर्म किसी भी बस्तु में हो उसको संगृहीत संग्रह कहते हैं.
(२) एक जाति के लिये एकपना मान के उस एक में सब का संग्रह हो जैसे-" एगेाया " " एग्गेपुग्गले " इत्यादि वस्तु अनन्त है परन्तु एक जाति को ग्रहण करता है उसको पिंडित संग्रह कहते है.।
(३) अनेक जीवरूप अनक व्यक्ति है उन सब में जिस धर्म की सामान्यता है जैसे-सत् चित् मयि आत्मा यह धर्म सब जीवो में सहश है ऐसे ही जीव के लक्षण, सर्व प्रदेश, सर्व गुणको अनुगम संग्रह कहते है. ।