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तीन आश्वासों का पूर्व खंड सन् 1916 में पुनः मुद्रित किया गया था। यह ग्रन्थ इधर दीर्घ काल से अप्राप्य है। इस ग्रन्थ का नाना दृष्टियों से गम्भीर और विशाल अध्ययन डॉ. हान्दिकी जैसे विद्वान् ने किया और उनकी कृति 'यशस्तिलक ऐंड इंडियन कल्चर' जैन संस्कृति संरक्षक संघ द्वारा, जीवराज जैन ग्रन्थमाला के द्वितीय पुष्प के रूप में, शोलापुर से सन् 1949 में प्रकाशित हुई, यह सन्तोष की बात है। इस कृति का भी सम्पूर्ण अनुवाद किये जाने की आवश्यकता है। __'यशस्तिलक' के अन्तिम आश्वासों का प्रस्तुत संस्करण अपने एक सीमित उद्देश्य से तैयार होकर प्रकाशित किया जा रहा है। ग्रन्थ का यह भाग श्रावकाचार विषयक है। नैतिक व धार्मिक दृष्टि से गृहस्थ नर-नारियों के क्या कर्त्तव्य हैं, यह विषय बड़ा महत्त्वपूर्ण है, विशेषतः इस युग में जबकि नैतिक आचरण में सर्वत्र चिन्तनीय शिथिलता दृष्टिगोचर हो रही है। आचार्य सोमदेव ने इस विषय पर बड़ी दृढ़ता, प्रामाणिकता और रोचकता से अपनी लेखनी चलायी है। इस ग्रन्थांश का सम्पादन और हिन्दी अनुवाद पं. कैलाशचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री ने उपलब्ध मुद्रित व हस्तलिखित प्राचीन प्रतियों के आधार पर परिश्रम से तैयार किया है। इसके अतिरिक्त पं. कैलाशचन्द्र जी ने एक लम्बी (96 पृष्ठों में) प्रस्तावना भी लिखी है। यहाँ उन्होंने डॉ. हन्दिकी की उपलब्धियों का भी उपयोग किया है और अपने स्वतन्त्र अध्ययन का भी। यहाँ यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि डॉ. हन्दिकी ने भारतीय साहित्य और संस्कृति को अपनी दृष्टि में रखकर विवेचन किया है, किन्तु पंडितजी की दृष्टि विशेष रूप से जैन तत्त्वज्ञान से सीमित रही है। इस प्रकार ये दोनों विवेचन परस्पर परिपूरक हैं। पंडितजी ने प्रस्तावना के उत्तर भाग में जो श्रावकाचारों का तुलनात्मक पर्यवेक्षण प्रस्तुत किया है वह महत्त्वपूर्ण है। श्रावकाचार का वर्णन सोमदेव से पूर्व भी अनेक आचार्यों ने किया है और उनके पश्चात् भी। यद्यपि आचार सम्बन्धी नियमों का मौलिक स्वरूप अपरिवर्तित रहा है, किन्तु व्रतों के वर्गीकरण, परिभाषाओं
और परिपालन में देश-कालानुसार विकास-शीलता भी पाई जाती है। इस विषय का कुछ विवेचन पं. जुगलकिशोर मुख्तार के अनेक लेखों में तथा पं. हीरालाल शास्त्री कृत वसुनन्दिश्रावकाचार की भूमिका में आ चुका है। किन्तु समस्त उपलब्ध श्रावकाचार सम्बन्धी साहित्य का सर्वांगपर्ण तलनात्मक अध्ययन अभी भी शेष है। पं. कैलाशचन्द्र जी ने इस अध्ययन को अपनी प्रस्तावना में आगे बढ़ाया है। तथापि उसमें एक कमी विशेष रूप से खटकती है। और वह यह कि श्वेताम्बर सम्प्रदाय में मान्य अर्धमागधी आगम के उपासकाध्ययन आदि श्रुतांगों व सावयपण्णत्ति-जैसे प्राकृत ग्रन्थों में, हरिभद्र की अनेक रचनाओं में व अन्यत्र जो इसी विषय का विवरण पाया जाता है वह यहाँ सर्वथा छूट गया है। कथा-साहित्य में भी गृहस्थ-धर्म के उपदेश के अतिरिक्त उसके व्यावहारिक स्वरूप का चित्रण भी मिलता है, जिससे आचार सम्बन्धी व्यवस्थाओं पर अच्छा प्रकाश पड़ता है व तात्कालिक सामाजिक प्रतिबिम्ब भी दिखाई देता है। देश के इतिहास, समाज व राजनीति को पृष्ठभूमि में रखकर सोमदेव के तथा उत्तर व दक्षिण भारत के अन्य लेखकों द्वारा विहित श्रावकाचार की विशेषताओं को देखने पर हमें समझ में आने लगता
6:: उपासकाध्ययन