________________
उपासकाध्ययन
वानप्रस्थ कहा है। उपासकाध्ययनमें कुटम्बके साथ बनमें रहनेवालेको वानप्रस्थ माननेका निषेध करते हुए सच्चे ब्रह्मचारीको ही वानप्रस्थ कहा गया है । नीति० (विद्या० १८ सू०) में नित्य और नैमित्तिक अनुष्ठानमें लगे रहनेवालेको गहस्थ कहा है । उपासकाध्ययनमें क्षमारूपी स्त्रीमें आसक्त ज्ञानीको गहस्थ कहा है।
__इससे यह स्पष्ट है कि नीतिवाक्यामृतकी विषय-वस्तु चूंकि लोक-व्यवहारसे सम्बन्धित है, इसलिए इसकी रचना लोकमें प्रचलित पद्धतिके अनुसार की गयी है और पारलौकिक धर्मका कथन करनेवाले उपासका. ध्ययनको रचना आगमानुसार की गयी है। इसी बातको सोमदेवने उपासकाध्ययन में प्रकारान्तरसे स्पष्ट किया है कि गृहस्थके दो धर्म होते हैं लोकिक और पारलौकिक, लौकिक धर्म लोकानुसार होता है और पारलौकिक धर्म आगमानुसार होता है । ( उपा० श्लो० ४७६)।
सोमदेव लोकप्रचलित वर्णाश्रम धर्मको और तत्सम्बन्धी वैदिक मान्यताओंको लौकिक धर्म ही मानते हैं, किन्तु वर्ण और आश्रमकी व्यवस्थाको लौकिक नहीं मानते। उनकी यह मान्यता उचित भी लगती है, क्योंकि उनके लगभग एक शताब्दी पूर्व जिनसेनाचार्य महापुराणमें इन मान्यताओंको स्वीकार कर चुके थे।
चामुण्डरायने अपने चारित्रसारमें भी जैनागममें चार आश्रम बतलाये हैं और 'उक्तं च उपासकाध्ययने' लिखकर महापुराणका 'ब्रह्मचारी' आदि श्लोक उद्धत किया है; केवल उसका अन्तिम चरण भिन्न है'सप्तमाङ्गाद् विनिःसृता.।'
तपस्वियोंकी चर्याके विषयमें सोमदेवने लिखा है कि उन्हें आहार देते समय विशेष ऊहापोह करनेकी आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वे अच्छे हों या बुरे गृहस्थको तो आहार देनेका फल मिल हो जाता है।
सोमदेवका यह कथन साधु-मुनियोंके आचारके विषयमें शिथिलताकी सूचना अनजाने ही दे देता है। देखना यह है कि सोमदेव-जैसा व्यक्ति इस शिथिलताके प्रति अपनी सहमति-सी क्यों व्यक्त करता है ? ऐतिहासिक पृष्ठभूमिपर इस बातका विचार करनेसे ज्ञात होता है कि जैन मुनि विशेषकर दिगम्बर जैन मुनिका आचार इतना कठिन है कि उसका पूर्णरूपसे पालन विरल व्यक्ति ही कर पाते हैं। जो व्यक्ति अन्तरंगसे संसार, शरीर और भोगोंसे विरक्त हो चुका है वही इसका सही रूपमें पालन कर सकता है। आचार्य कुन्दकुन्दने केवल वेष धारण करनेवाले अज्ञानी अवास्तविक मुनियोंको भावपाहुडमें आलोचना और भर्त्सना की है।
मुनियोंका निवास ग्राम, नगर आदिमें वजित है, किन्तु कालदोषके कारण संहनन इत्यादिको दुर्बलताके कारण धीरे-धोरे मुनिगण भी ग्राम आदिमें रहने लगे थे। आचारसम्बन्धी शिथिलताएं इसी प्रकार आयो लगती है । गुणभद्राचार्य ( नवौं शती) ने लिखा है कि जिस प्रकार सिंह आदिसे डरकर रात्रिमें हरिण वनसे निकलकर पासके गांवोंमें घुस आते हैं उसी प्रकार कलिकालमें कष्ट सहने की क्षमता न होनेसे तपस्वीजन भी ग्रामों में रहने लगे हैं।
आचार सम्बन्धी शिथिलताके बहुत-से प्रमाण साहित्यमें प्राप्त होते हैं। सोमदेवने भी इसी परम्परामें
१. “चतुर्णामाश्रमाणां च शुद्धिः स्यादाहते मते ।
चातुराश्रम्यमन्येषामविचारितसुन्दरम् ॥१५१।। ब्रह्मचारी गृहस्थश्च वानप्रस्थोऽथ भिक्षुकः। इत्याश्रमास्तु जैनानामुत्तरोत्तरशुद्धितः ॥१५॥"
-पर्व ३९। २. "भुक्तिमानप्रदाने तु का परीक्षा तपस्विनाम् ।
ते सन्तः सन्त्वसन्तो वा गृही दानेन शुद्धयति ॥"-सो० उपा० श्लो० ८१८ । ३. "इतस्ततश्च त्रस्यन्तो विभावयां यथा मृगाः ।
वनाद्विशन्न्युपग्रामं कलौ कष्टं तपस्विनः ॥"-आत्मानुशासन श्लो० १९७ ।